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गुञ्जत बहु भुंगं, पुष्पसुगन्धं कल्पवृक्ष के शुभ ल्यायो । हरिवाण मनोजं, पद अंभोज, पूजन कारन मैं आयो । तपऋद्धिके स्वामी, शिवपद-गामी, शान्ति-करामी तिम ध्यावें । करि विघन विनाशं मंगलभासं, हरि भव त्रासं गुण गावें ॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । घेवर बावर, फेणी मोदक, चन्द्रक सुवरण थाल भरे । रसनाके रंजन, रसके पूरे, पूजत, रोग क्षुधादि हरे ॥तप०॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । कनक रकाबी में मणिदीपक, ललित ज्योति करि अति प्यारे । मोह-तिमिर विध्वंसन कारण, चरण-कमल पर हम वारे ।तप०॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा । अगर तगर मलयागिरि चन्दन, केलीनन्दन धूप करी । स्वर्ण धुपायन संग हुताशन, खेवत भाजै कर्म-अरी ॥तप०॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्तसर्वमुनीश्वरेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा । सुष्टु मिष्ठ बादाम जायफल दाख पूग श्रीफल भारी ! एला आदि फलनितें पूजों मुक्ति मिलावन भरि थारी ॥तप०॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । स्वच्छ नीर मलयागिरि चन्दन, अखित पुष्प नेवज भारी । दीप धूप फल स्वर्णथाल भरि अर्घ चढावो सुखकारी ॥तप० ॥ ॐ ह्रीं तपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ प्रत्येक पूजा
(दोहा) तपऋद्धिधर तपत नित, टरत उपद्रव-वृन्द । षट् ऋतु तरुवर फल फलत, अरचत सकल नरिन्द । ॐ ह्रीं तपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।