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[३४] अथ चतुर्थकोष्ठस्थतपोतिशयऋद्धिप्राप्त
__ ऋषीश्वर पूजा ॥ स्थापना ॥ (अडिल्ल छंद) तपऋधि धारक मुनी जहां तिष्ठै सही। मरी आदि सब रोग तहां कछु हो नहीं । जातिविरोधी जीव बैर सबही त● ।
शांति प्रवर्तन काज थापि हमहू. यजै ॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिसहितसर्वमुनीश्वरसमूह ! अत्रावतरावतर । संवौषट् आह्वानम् ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिसहितसर्वमुनीश्वरसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ! ठः ठः । स्थापनम् ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिसहितसर्वमुनीश्वरसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निकणम् ।
अष्टक
(त्रिभंगी छन्द) निर्मल शुभ नीरं गंध गहीरं, प्रासुक सीरं ले आया। भरि कंचनझारी, धार उतारी, जन्म मृत्युहारी पद ध्याया ॥ तपऋद्धिके स्वामी, शिवपद-गामी, शान्ति-करामी तिम ध्यावें । करि विघन विनाशं मंगलभासं, हरि भव त्रासं गुण गावें ॥ ॐ हीं तपोतिशयऋद्धिसहित सर्वमुनीश्वरेभ्यो जलम् निर्वपामीति स्वाहा । मलय सुचन्दन, कदली नन्दन, भव-तप भंजन को लाया । तुम चरण चढामी, शिवसुखगामी, गुणधामी पूजन आया । ॥तप०॥ ॐ हीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्यो चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा । सित सालि अखंडित, सौरभ मंडित, चन्द्र-किरण से अनियारी ।
भूपनको मौसर, हम इह औसर, पूज करों शिव-पदकारी ॥तप०॥ ॐ ह्रीं तपोतिशयऋद्धिप्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।