________________
[३६] (चाल-आओजी आओ सब मिल जिन चैत्यालय चालां) एक वास करि घटै नहीं फिर अधिक अधिक विस्तारै । येही जी उग्रतपोऋद्धि-धारक मुनि भव तारे, राज ॥ . आओजी आओ सब मिल मुनिवर पूजन चालां । मुनिजी के दर्शन-जलतें कर्म-कलंक पखालां, राज ॥आओ०॥१॥ ॐ ह्रीं उग्रतपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । बहुत वास करि खीण भयो तन अधिक दीप्तता धारै । . ये ही जी दीप्ततपोऋद्धि मुख सुगन्ध विस्तारै, राज ।आओ०॥२॥ ॐ ह्रीं दीप्ततपातिशयऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
अहार करत नीहार होत नहिं शुष्क भये तन मांहीं । ये ही जो तप्ततपोंऋद्धि धारक मुनि अरचाहीं, राज ।आओ०॥३॥ ॐ ह्रीं तप्ततपोतिशयऋद्धि-प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
मति श्रुत अवधि ज्ञान कर सूक्षम त्रसनाडी के मांही। जानैं सबहु भाव जीवके महातपोऋद्धि याही, राज ॥आओ०॥४॥ ॐ ह्रीं महातपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
रोग व्यथा उपजत मुनिजन तो उपवासादि कराई। चिगैं नहीं तपध्यान संयमतें घोर तपोऋद्धि याही, राज ॥आओ०॥५॥ ॐ ह्रीं घोर तपोतिशय-ऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । घोर पराक्रमऋद्धिके धारक तिनको दुष्ट सतावै ।
ता कारणतें सर्व देशमें मरी आदि भय आवै, राज ॥आओ०॥६॥ ॐ ह्रीं घोर पराक्रम-तपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्व० गुण अघोरब्रह्मचर्यधार मुनि तिष्ठत जहाँ सुखदाई । मरी आदि सब रोग मिटत तहँ ऋद्धि-वृद्धि अधिकाई, राज ।आओ०॥७॥ ॐ ह्रीं अघोर ब्रह्मचर्य-तपोतिशय-ऋद्धि-प्राप्त-सर्व-मुनीश्वरेभ्योऽर्थ्य निर्वपामीति स्वाहा ।