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[३१] देखत सबके प्रछन्न होवें, काहूके दृष्टि न आई। अन्तर्धानऋद्धि है ये ही, तप बल पर प्रगटाई ॥ मुनीश्वर पूजों अर्घ चढाई, जो विक्रियाऋद्धि शुभ पाई ॥१०॥ ॐ ह्रीं अन्तर्धान-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । मनवांछित सो रूप बनावे, जो होवे मन माहीं । कामरूपिणी ऋद्धि यही है, तप बल यह उपजाई ॥ मुनीश्वर०॥११॥ ॐ ह्रीं कामरूपिणी-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(सोरठा) तप महात्म्यते येह, विक्रियऋद्धि उपजी जिन्हें ।
मन वांछित फल लेह, पूर्जे ध्यावें जो तिन्है॥ ॐ ह्रीं अणिमाआदि कामरूपिणीपर्यन्त विक्रिया-ऋद्धि-धारकसर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(गीता छन्द) वज्रधर अरु चक्रधर अरु धरणिधर विद्याधरा । तिरशूल धर अरु काम हलधर शीषि चरणनि तल धरा ॥ ऐसे ऋषीश्वर ऋद्धि विक्रियधरी तिनके पदकमलपूजों सदा मन वचन तन करि हरो मेरे कर्म-मल ॥
(ढाल त्रिभुवन गुरु की) संसार असाराजी, मिथ्यात्व अंधाराजी ।
यामें दुख भारा, चतुर्गतिके विजी ॥२॥ नरकनिके माहीजी, कहुँ साता नाहीजी।
सागर बहु ताई, दुख भुगत्या घणाजी ॥३॥ तिर्यञ्च गति धारीजी, पशुकाया सारीजी ।
तामें दुख भारी, भूख तृषा तणीजी ॥४॥