________________
[३०] चक्रवर्ती-संपत्ति निपजावै, योजन लाख ऊँचाई । निज शरीरकी क्षणमें करत है, वह महिमा ऋद्धि गाई । मुनीश्वर पूजों अर्घ चढाई, जो विक्रियाऋद्धि शुभ पाई ॥२॥ ॐ ह्रीं महिमा-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । काय बडी दीखत सब जनको, अर्कतूल हलकाई। ऐसी ऋद्धि उपजत मुनिवरको, सो लघिमा जु कहाई ॥ मुनी० ॥३॥ ॐ ह्रीं लघिमा-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । शरीर सूक्ष्म सब जनको दीखे, इन्द्रादिक मिल आई। जिनतें हुलै चलै नहिं कबहूं, यह गरिमा ऋद्धि पाई ॥ मुनी० ॥४॥ ॐ हीं गरिमा-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । पृथ्वी ऊपर तिष्ठै मुनिवर, मेरु-शिखर स्पर्शाई । चन्द्र सूर्य ग्रह अंगुली धारें, प्राप्ति-ऋद्धि कर भाई ॥ मुनी० ॥५॥
ॐ ह्रीं प्राप्ति-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । ... अनेक प्रकार शरीर बनावें, पृथ्वी में धसि जाई ।
भूमि मांहि चुभकी जलवत् ले, ऋद्धि प्राकाम्य कहाई ॥ मुनी ० ॥६॥ ॐ ह्रीं प्राकाम्य-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । तप बल मुनीश्वर के सब होवे, तीन लोक ठकुराई । इन्द्रादिक सब शीष नमावै, ईशत्व ऋद्धि उपजाई ॥ मुनीश्वर० ॥७॥ ॐ ह्रीं ईशत्व-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । तीन लोक जिनके दर्शनतें, देखत वशि हो जाई । सबके बल्लभ गुणके दाता ये वशित्व ऋद्धि पाई ॥ मुनीश्व० ॥८॥ ॐ ह्रीं वशित्व-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । पर्वत भेद निकसि वे जावें, छिद्र न हो ता मांहीं। रुकें नहीं काहू से मुनिवर, अप्रतिघात ऋद्धि पाई ॥ मुनीश्वर० ॥९॥ ॐ ह्रीं अप्रतिघात-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।