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[२८] अथ तृतीयकोष्ठे विक्रियाऋद्धिधर मुनि पूजा
॥ स्थापना ॥ (चाल चौपाई रूपक) सब जीवनके सुखके कंदा, विक्रिय ऋद्धिके धार मुनींदा । थापों पूजन काज सदीवा, मन वांछित फल दाय अतीवा ॥
ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वर ! अत्रावतराबतर ! संवौषट् । आह्वानम्
ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वर ! अत्र मम तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । स्थापनम् . ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वर ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं।
अष्टक (चाल-आवंत नीड़ो काल वरज्यो ना रह्यो) कमल सुवासित परिमल गंधित गंगादिक जल सार । निर्गत रत्नभंग त्रय धारा जन्म जरा मृति हार । मुनीश्वर पूजत हों मैं विक्रय ऋद्धिके धार मुनीश्वर पूजत हों। ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्यो ! जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि० • मलयागिरि चन्दन घसि केसर और मिला घनसार ।
भव संताप हरनके कारण अरचों बारम्बार। मुनी० । ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्यो ! संसारतापविनाशनाय चंदनं नि० कमल शालिके अखित अखण्डित मुक्ता सम अविकार । अखय अखण्डित सुखकारण भरि कनक रतनमय थार। मुनी० । ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्यो ! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं नि० • अमर तरु अरु कल्प बेलिके पुष्प सुगन्ध अपार ।
मनमथ भंजन कारण अरचों भर कञ्चन शुभ थार। मुनी० । ॐ ह्रीं विक्रिया-ऋद्धि-प्राप्त-सर्वमुनीश्वरेभ्यो ! कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि०