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[२७] सबै जानि आगम गमन सब करतजी सम्यक् धर निजभाव, मुनि० पालै करुणा सबन की श्रीमुनिवरजी, जीव जाति कर चाव, मुनि० ॥११॥ चारण ऋद्धिके होत ही करुणा प्रतिपालै, पृथी धरत न पांव, मुनि० । तातें जिनकी देहतें श्रीमुनिवरके, रंच न हिंसा भाव, मुनिवरजी ।१२। चारण मुनिके गुणनिको धी तुछ धारी हो, कोलौं करै बखान, मुनि० । सहसजीभतें इन्द्र भी मुनिवरको नहिं कर सकै बखान, मुनि०।१३। अब मेरी यह विनति श्रीमुनिवरजी, सुन लीज्यो ऋषिराज, सारीजी० । जोलौं शिव पाऊँ नहीं मुनिवरजी, तोलौं दरश दिखाय, यतिवरजी ।१४।
(सोरठा) जो यह पढे त्रिकाल, गुणमाला ऋषिराजकी। हो वह भवदधि पार, मुनिस्वरूप को ध्यान करि ॥१५॥ ॐ ह्रीं चारण-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(छप्पय) .. चारण मुनिकी पूज करें इहि विधि भवि प्राणी । सकल विघन को नाश होय मंगल सु निधानी ॥ ऋद्धि वृद्धि बहु होय तासके गृहके मांहीं । पुत्र पौत्र सुख बढे और परिणय सुखदाई। मन वचन काय पूजा करत, पाप सकलको नाश फिर। भरत पुण्य भण्डार बहु, मुनि प्रसादतें तास घर ॥
॥ इत्याशीर्वादः ॥ (इति द्वितीय कोष्ठ पूजा)