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[२५] पुष्पन परि गमन कराही, पुष्प-जीवन बाधा नाहीं। मुनि चारण-पुष्प वही है, तिन पूजें मुक्ति लही है ॥४॥ ॐ ह्रीं पुष्पचारण ऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । पत्रन परि गमन करंता, पत्र-जीव बाध नहिं रंचा । यह पत्रचारण मुनि पूजें, तिनतें सब पातक धूजें ॥५॥ ॐ ह्रीं पत्रचारण ऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । बीजन परि मुनि विचराहीं, बीज-जीवसु बाधा नाहीं ।
जे चारण बीज-ऋषीश्वर, तिन पूजें है अवनीश्वर ॥६॥ ॐ ह्रीं बीजचारण ऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । श्रेणीवत् गमन करता, सब जीवजाति रक्षता । श्रेणी चारण ते कहिए, पूर्जे मनवांछित पइये ॥७॥ ॐ ह्रीं श्रेणीचारण ऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । जे अग्नि शिखापर चालै, सो अग्नि शिखा नहिं हाले । ते अग्निचारण मुनि पूर्जे, तिनको शिव-मारग सूझै ॥८॥ ॐ ह्रीं अग्निचारण ऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । पालै आज्ञा जिनशासन, कायोत्सर्गादिक आसनधरि, गमन करें नभ मांहीं, नभचारण पूज कराहीं ॥९॥ ॐ ह्रीं नभश्चारणऋद्धि प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(सोरठा) जलचारणतें आदि, भेद क्रिया ऋधिके सकल ।
धारक तिन ऋषिपाद, मन वच तन पूजो सदा ॥ ॐ ह्रीं नव-भेद-क्रियाचारण-ऋद्धि-प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्व०