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[१८] नव योजनतें अधिक स्वाद बल रसनेन्द्रिय में थाई । दूरास्वादन ऋद्धिधार ऋषीश्वर चरणां शीष नमाई ॥ मुनीश्वर पूजो हो भाई, दूरास्वाद ऋद्धिधार मुनीश्वर पूजो० ॥९॥ ॐ ह्रीं दूरास्वादन-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ! • नव योजनतें बहुत अधिककी गंध नासिका जाई ।
दूरगंध रिधिधार मुनीश्वर चरणां ष नमाई ।। मुनीश्वर पूजो हो भाई, दूरगंधऋद्धिधार मुनीश्वर पूजो० ॥१०॥ ॐ ह्रीं दूरगंध-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । सहस सैंताल रु द्विशत तरेसठि योजनतें अधिकाई । चविंन्द्रिय बल अधिक अनूपम दूरदृष्टि ऋद्धि पाई ।। मुनीश्वर पूजो हो भाई, दूरावलोकन ऋद्धिधार मुनीश्वर पूजो० ॥११॥ ॐ ह्रीं दूरावलोकन-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । द्वादश योजन बहुत अधिक को शब्द श्रवण बल पाई। दूर श्रवण ऋधिधर ऋषीवर के चरण कमल सिरनाई ॥ मुनीश्वर पूजो हो भाई, दूर-श्रवण ऋद्धिधार मुनीश्वर पूजो० ॥१२॥ ॐ हीं दूर श्रवण-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । दशम पूर्व हो सिद्ध तहां तब महाविद्या सब आई। आज्ञा मांगै कार्य करन की मुनि तिनको नहिं चाही ॥ मुनीश्वर पूजो हो भाई, दशं पूरब ऋद्धिधार मुनीश्वर पूजो० ॥१३॥ ॐ ह्रीं दशपूर्व-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । चौदह पूरव धारण होवे तप प्रभाव मुनिराई । चौदह पूरवधारण समरथ मन वच तन सिर नाई ॥ मुनीश्वर पूजो हो भाई, चौदह पूरव धारि मुनीश्वर पूजो० ॥१४॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्व-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । .