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(पद्धडि छन्द) जयजयजय श्रीमुनि युगल पाय, मैं प्रणमों मन वच शीश नाय । ये सब असार संसार जान, सह त्यागि कियो आतम कल्याण ॥२॥ क्षेत्र वास्तु' अरु रत्न स्वर्ण, धन धान्य द्विपद अरु चतुकचर्ण । अरु कौप्य भांड दश बाह्य भेद, परिग्रह त्यागे नहिं रंच खेद ॥३॥ मिथ्यात्व तज्यो संसार मूल, पुनि हास्य अरति रति शोक शूल । भय सप्त जुगुप्सा स्त्रीय वेद, पुनि पुरुष वेद अरु क्लीव' वेद ॥४॥ अरु क्रोध मान माया रु लोभ, ये अंतरंग में करत क्षोभ । इमि ग्रंथ' सबै चौबीस येह, तजि भए दिगम्बर नग्न जेह ॥५॥ गुण मूल धारि तजि राग दोष, तप द्वादश धरि करि करत शोष । तृण कंचन महल मसान मित्त, अरु शत्रुनिमें समभाव चित्त ॥६॥ अरु मणि पाषाण समान जास, पर परणतिमें नहिं रंच वास । यह जीव देह लखि भिन्न भिन्न, जे निज-स्वरूपमें भाव किन ॥७॥ . ग्रीषम ऋतु पर्वत शिखर वास, वर्षा में तरुतल है निवास.। जे शीतकालमें करत ध्यान, तटनी तट चोहट शुद्ध थान ॥८॥ हो करुणासागर गुण अगार, मुझ देहि अखय सुखको भंडार । मैं शरण गहीं मुझ तार तार, मो निज स्वरूप द्यो बार बार ॥९॥ .
(धत्ता) यह मुनिगुणमाला, परम रसाला, जो भविजन कंटै धरही । सब विघ्न विनाशहि, मंगल भासहि, मुक्ति रमा वह नर वरही ॥१०॥
ॐ ह्रीं भूत भविष्यतवर्तमानकालसम्बन्धि पुलाक वकुश कुशील निग्रंथ स्नातक सर्वप्रकार मुनीश्वरेभ्योऽनर्घपदप्राप्तये जयमालायँ निर्वपामिति स्वाहा ।
(दोहा) सर्व मुनिनकी पूज यह, करै भव्य चित लाय । ऋद्धि सर्वं घरमें बसै, विघ्न सबै नशि जाय ॥१॥
॥इत्याशीर्वादः॥ १ मकान २ नपुंसक ३ ‘परिग्रह