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________________ ___ कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 83 जबकि नियम भावात्मक सद्गुण है। (3) आसन-आसन तीसरा योगांग है। आसन का अर्थ है-शरीर को विशेष मुद्रा में रखना । आसन की अवस्था में शरीर का हिलना और मन की चंचलता आदि का अभाव हो जाता है, तन-मन दोनों को स्थिर रखना पड़ता है। शरीर को कष्ट से बचाने के लिए आसन को अपनाने का निर्देश दिया गया है। ध्यान की अवस्था में यदि शरीर को कष्ट की अनुभूति विद्यमान रहे तो ध्यान में बाधा पहुँच सकती है। इसलिए आसन पर जोर दिया गया है। आसन विभिन्न प्रकार के होते हैं। आसन की शिक्षा साधक को एक योग्य गुरु के द्वारा ग्रहण करनी चाहिए। आसन के द्वारा शरीर स्वस्थ हो जाता है तथा साधक को अपने शरीर पर अधिकार हो जाता है। योगासन शरीर को सबल तथा नीरोग बनाने के लिए आवश्यक है। (4) प्राणायाम-प्राणायाम योग का चौथा अंग है। श्वास–प्रक्रिया को नियन्त्रित करके, उसमें एक क्रम लाना प्राणायाम कहा जाता है। जब तक व्यक्ति की साँस चलती रहती है, तब तक उसका मन चंचल रहता है। श्वास-वायु के स्थगित होने से चित्त में स्थिरता का उदय होता है। प्राणायाम के तीन भेद हैं-(1) पूरक (2) कुम्भक और (3) रेचक। . पूरक-प्राणायाम का वह अंग है, जिसमें गहरी श्वास ली जाती है। कुम्भक में श्वास को भीतर रोका जाता है। रेचक में श्वास को बाहर निकाला जाता है। प्राणायाम का अभ्यास किसी गुरु के निर्देशानुसार ही किया जा सकता है। श्वास के व्यायाम से हृदय सबल हो जाता है। (5) प्रत्याहार-यह योग का पाँचवाँ अंग है। प्रत्याहार का अर्थ है - इन्द्रियों के बाह्य विषयों से हटाना तथा उन्हें मन के वश में रखना। इन्द्रियाँ स्वभावतः अपने विषयों की ओर दौड़ती हैं 152 योगाभ्यास के लिए ध्यान को एक ओर लगाना होता है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि इन्द्रियों का अपने विषयों से संसर्ग नहीं हो। प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रियाँ अपने विषयों के पीछे से न चलकर मन के अधीन हो जाती हैं। प्रत्याहार को अपनाना अत्यन्त कठिन है। अनवरत अभ्यास, दृढ़ संकल्प और इन्द्रिय-निग्रह के द्वारा ही प्रत्याहार को अपनाया जा सकता है।
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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