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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 213 वचन, कर्म में सामंजस्य एवं मन की पवित्रता पर बल दिया। साथ ही संसार, शरीर एवं भोगों की नश्वरता, अशरणता, दुःखरूपता आदि के द्वारा भौतिक सुख समृद्धि, मान-प्रतिष्ठा आदि को असार बतलाते हुए मोक्ष प्राप्ति हेतु प्रेरणा प्रदान की एवं धार्मिक और नैतिक साहित्य की रचना करके समाज का उचित मार्गदर्शन किया।
द्यानतरायजी ने सांसारिक मोह-माया एवं इन्द्रिय-विषयों से अपने मन को हटाकर देव-शास्त्र-गुरु एवं शुद्धात्मतत्त्व में लगाने तथा सम्पूर्ण विश्व को कल्याण के मार्ग पर अग्रसित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु उन्होंने अपने साहित्य में दार्शनिक, धार्मिक एवं नैतिक विचारों का प्रतिपादन किया । आत्मा को जानकर, पहचान कर उसमें ही लीन होने की बात कर जीवन में सत्य, दया, क्षमा, प्रेम आदि जो अपनाने की प्रेरणा दी। आत्मशुद्धि के लिए राग-द्वेष-मोह भावों को त्यागने का उपदेश दिया। उस समय व्याप्त सामाजिक जीवन में मद्यपान, चोरी, जुआ, आखेट, वेश्यासेवन, परस्त्रीगमन, मांसभक्षण आदि व्यसनों के दोष बतलाकर उनकी कटु आलोचना कर उन्हें आत्मकल्याण के लिए बाधक बताया एवं उन्हें छोड़ने की प्रेरणा दी। उन्होंने धार्मिक एवं आध्यात्मिक आचरण हेतु देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन छह आवश्यक कर्मों का महत्त्व प्रतिपादित किया तथा पंच महाव्रतों को आचरण में लाने की प्रेरणा दी।
द्यानतराय ने अपने उपदेशों द्वारा हमारी संस्कृति की रक्षा की, मानवीय मूल्यों को पुष्ट किया, जाति-पाँति का भेद मिटाया, स्वावलम्बन का भाव जगाकर पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी तथा व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया। इस दृष्टि से द्यानतरायजी का अवदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
द्यानतरायजी ने धर्म का जो स्वरूप प्रस्तुत किया, वह मात्र सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यावहारिक भी है। इसको किसी भी जाति, वर्ग एवं धर्म का व्यक्ति अपना कर अपना कल्याण कर सकता है। चूंकि कवि ने किसी विशेष व्यक्ति, धर्म, सम्प्रदाय के लक्ष्य से साहित्य का निर्माण नहीं किया है; अतः द्यानतसाहित्य को किसी भी जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय अपना सकता है। द्यानतसाहित्य न सिर्फ आत्मकल्याण की बात करता है, बल्कि उसमें