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214 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना
विश्वकल्याण की भावना भी सराबोर है । द्यानतराय ने साहित्य में मानवतावाद, समाजवाद और अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठा कर विश्व में व्याप्त समस्त वैर - विरोध, कृत्रिम भेदोपभेद एवं विषमताओं को नष्ट कर मैत्री, भाईचारा, वात्सल्य भाव, रखने की बात कही है।
कवि ने कुरीतियों एवं बाह्याडम्बरों का विरोध कर मानवमात्र के कल्याण के लिए साहित्य की रचना की और अध्यात्मप्रधान भारतीय संस्कृति के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
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द्यानतराय ने देव-गुरु-धर्म का पोषण किया है । देव - गुरु-धर्म को आत्मकल्याण के लिए हितकारी बताकर उनकी उपासना का मार्ग प्रशस्त किया। साथ ही अहिंसा को अपनाकर हिंसा एवं सप्त व्यसनों को त्यागने की बात कही। चूँकि आत्मा बिना किसी साधनापरक पूर्व अभ्यास के निराकार पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकता है। इसीलिए उसे ध्यान की एकाग्रता हेतु किसी मूर्त आधार की आवश्यकता होती है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर द्यानतराय ने प्रतिमा पूजन का समर्थन किया। साथ ही उसे भावों की शुद्धता का कारण भी बताया है। प्रतिमा पूजन के विषय में तत्कालीन समाज में व्याप्त रूढ़ियों बाह्याडम्बरों का समाधान प्रस्तुत कर कवि ने समाज का बड़ा उपकार किया है।
वस्तुतः द्यानत साहित्य की आस्था उस धार्मिक एवं आध्यात्मिक उन्नति या विकास में है; जहाँ आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द या निराकुल सुख को प्राप्त करता है। निराकुल सुख और अध्यात्म की प्राप्ति के लिए द्यानतरायजी के साहित्य की उपयोगिता आज भी है और भविष्य में भी रहेगी ।
इस प्रकार निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि द्यानतरायजी ने अज्ञानरूपी अन्धकार में भटकते जीवों को अध्यात्म की प्रेरणा देकर जगतजनों का दिशा-निर्देश कर ज्ञान - आलोक प्रदान कर नर से नारायण एवं पामर से तीन लोक का अधिपति बनकर अनन्तकाल तक निराकुल सुखी रहने का मार्ग प्रशस्त किया ।