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________________ चतुर्थ अध्याय द्यानतराय की अध्यात्म निरूपणा यद्यपि जैन साहित्य में अध्यात्म नींबू में खटास, मिश्री में मिठास की तरह व्याप्त है। पूर्व आचार्यों कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, पूज्यपाद अकलंकदेव आदि कई आचार्यों एवं विद्वानों ने अध्यात्म का रहस्योद्घाटन किया है, तथापि उक्त रहस्योद्घाटन सर्वजनग्राह्य नहीं हो सका । साहित्य के क्षेत्र में यह एक बहुत बड़ी कमी थी । कविवर द्यानतरायजी ने इस कमी का अनुभव कर संसारी जीवों के कल्याणार्थ अध्यात्म रस से सराबोर, पद, भक्तियाँ, पूजनें एवं शतक काव्यों की रचना की । जहाँ कलिकाल के प्रभाव से अज्ञानमयी मान्यताओं के मेघों से आच्छादित साहित्य- आकाश में अध्यात्म के उपदेष्टा खद्योतवत् टिमटिमाते थे 'वहाँ कविवर द्यानतरायजी अपने उज्ज्वल व्यक्तित्व के साथ आविर्भूत हुए तथा उन्होंने अपनी कृतियों द्वारा अध्यात्म की शीतल शान्तिदायिनी चाँदनी बिखेरकर पथभ्रष्ट पथिकों को परम कल्याण का पथ प्रदर्शित किया । द्यानतरायजी ने जहाँ अपने काव्य में द्रव्यानुयोग गर्भित जैन सिद्धान्तों का वर्णन किया, वहीं उन्होंने चरणानुयोग को अछूता नहीं छोड़ा | चारित्र सम्बन्धी चर्चा उनके काव्य में यत्र-तत्र देखी जा सकती है । (क) चारित्रगत - निरूपणा : (1) इन्द्रिय संयम की आवश्यकता- जो संयम को प्राप्त करने के बाद उसे छोड़ देता है, बिगाड़ देता है; उसको अनन्तकाल तक निगोद में परिभ्रमण, त्रस-स्थावरों में भ्रमण करना पड़ता है, सुगति नहीं मिलती है। संयम प्राप्त करके उसे बिगाड़ने के समान बड़ा अनर्थ दूसरा नहीं है । विषयों का लोभी होकर जो संयम को बिगाड़ता है, वह एक कौड़ी में चिन्तामणि रत्न बेच देनेवाले व ईंधन के लिये कल्पवृक्ष को काटनेवाले के समान है। 2 विषयों का सुख तो सुख ही नहीं है, वह तो सुखाभास है, क्षणभंगुर है, नरकों के घोर दुःखों की प्राप्ति का कारण है; जैसा कि पाक फल जिह्ना के स्पर्शमात्र से ही मीठा लगता है, पश्चात् घोर दुःख, महादाह, सन्ताप देकर मरण को प्राप्त कराता है; उसी प्रकार भोग भी किंचित्काल मात्र ही अज्ञानी जीवों को भ्रम से सुख जैसा लगता है, पश्चात् तो अनन्तकाल तक
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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