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________________ - कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 129 समसत्तुबंधुवग्गो समसुद्ददुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोहकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो । । 125 अर्थात् जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग समान है, सुख-दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दा समान है, मिट्टी का ढेला और सुवर्ण समान है तथा जीवन मरण के प्रति भी जिसको समता है, वह श्रमण है। वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयास्ता। णिग्गथा णिम्मोहा साहू एदेरिसा होति ।। 128 . अर्थात् समस्त बाह्य व्यापार से विमुक्त, चतुर्विध आराधना में सदा रक्त, निर्ग्रन्थ और निर्मोह-ऐसे साधु होते हैं। णिस्सगो णिरारम्मो मिक्खाचरियाए सुद्धभावो य। . एगागी झाणरहो सव्वणगुड़ ढो हवे समणो ।। 127 अर्थात् जो निष्परिग्रही व निरारम्भ है, भिक्षाचर्या में शुद्धभाव रखता है, एकाकी ध्यान में लीन होता है और सब गुणों से परिपूर्ण होता है, वह श्रमण है। अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः 128 अर्थात् जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्मा की साधना करते है, उन्हें साधु कहते हैं। अणतणाणदसणवीरियविरइखइयसम्मत्तादीणं साध्या साहूणाम् ।।129 अर्थात् जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों के साधक हैं, वे साधु कहलाते हैं। इस प्रकार जैनशास्त्रों में सद्गुरु का स्वरूप निम्नानुसार बताया है - (1) जो विरागी होकर, समस्त परिग्रह छोड़कर, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्म अंगीकार करके अन्तरंग में उस शुद्धोपयोग द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं।130 (2) परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं रखते। (3) अपने ज्ञानादिक स्वभावों को ही अपना मानते हैं। (4) परभावों में ममत्व नहीं करते। (5) परद्रव्य तथा उनके स्वभाव ज्ञान में परिभाषित होते हैं, उन्हें जानते तो अवश्य हैं, किन्तु इष्ट-अनिष्ट मानकर उनमें राग-द्वेष नहीं करते। .
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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