SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 128 कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना धरम कौ मंडन, भरम को विहंडन है परम नरम है कै, करम सौं लरयौ है। ऐसौ मुनिराज, भुविलोक मैं विराजमान निरखि बनारसी, नमस्कार कर्यो है।। 5 ।।124 अर्थात जो ज्ञान के प्रकाशक हैं, साहसिक आत्मसुख के समद्र हैं, सम्यक्त्वादि गुणरत्नों की खान हैं, वैराग्य-रस से परिपूर्ण हैं, किसी का आश्रय नहीं चाहते, मृत्यु से नहीं डरते, इन्द्रिय-विषयों से विरक्त होकर चारित्र पालन करते हैं, जिनसे धर्म की शोभा है, जो मिथ्यात्व का नाश करने वाले हैं, जो कर्मों के साथ अत्यन्त शान्तिपूर्वक लड़ते हैं – ऐसे साधु महात्मा जो पृथ्वीतल पर शोभायमान हैं, उनके दर्शन करके पण्डित बनारसीदासजी नमस्कार करते हैं। नियमसार, गाथा 75 में सद्गुरु का स्वरूप इस प्रकार बताया है‘समस्त आरम्भादि बाह्य व्यापार से विमुक्त, चतुर्विध आराधना में सदा रत, निर्ग्रन्थ और निर्मोही-ऐसे साधु होते हैं।' निरन्तर अखण्डित परम तपश्चरण में निरत-ऐसे सर्व साधुओं का स्वरूप निम्न प्रकार है (1) वे परमसंयमी महापुरुष होने से त्रिकाल-निरावरण, निरंजन परम पंचमभाव की भावना में परिणमित होने के कारण ही समस्त बाह्य व्यापार से विमुक्त हैं। (2) वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परमतप नाम की चतुर्विध आराधना में सदा अनुरक्त हैं। (3) वे बाह्य-आभ्यन्तर समस्त परिग्रह से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ हैं तथा (4) वे सदा निरंजन निज कारण समयसार के चरण के सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् परिज्ञान और सम्यक् आचरण से प्रतिपक्षी - ऐसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का अभाव होने के कारण निर्मोही हैं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव प्रवचनसार, गाथा 201 में कहते हैं कि 'पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्ख परिमोक्खं अर्थात् यदि दुःखों से परिमुक्त होने की इच्छा है तो श्रामण्य (मुनिदशा) को अंगीकार करो। तात्पर्य यह है कि संसार दुःखों के अभाव के लिए और मुक्ति-सुख की उपलब्धि के लिए मुनिपने को ग्रहण करना चाहिए। श्रमण का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए प्रवचनसार के रचनाकार लिखते हैं कि - .
SR No.007148
Book TitleAdhyatma Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNitesh Shah
PublisherKundkund Kahan Tirth Suraksha Trust
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy