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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 107 प्रात भये पंछी उड़ चले जग की रीति खरी।। 1 ।। जब लग बैल वहे बनिया को तब लग चाह धनी। थकैं बैल को कोई न पूछै फिरता गली-गली।।2।। सत्त बाँध सती उठ चाली मोह के फंद पड़ी। द्यानत कहे प्रभू नहीं सुमो मुर्दा संग जली।। 3 ।।"
संसार को झूठा बताते हुए कहते हैं - झूठा सुपना यह संसार। दीसत है विनसत ही हौ वार।। मेरा घर सब तैं सिरदार। रहै न सकै पल एक मँझार।। झूठा।। . मेरे धन सम्पत्ति अतिसार । छाँडि चलै लागै न अवार।। झूठा।। इन्द्री विषै दिषै फल धार। मीठे लगैं अंत खयकार।। झूठा।। मेरी देह काम उनहार। सो तन भयौ छिनक में छार।। झूठा ।। जननी तात भ्राता सुत नारि। स्वारथ विना करत है धार।। झूठा।। भाई सत्रु हौहिं अनिवार। सत्रु भइ भाई बहु प्यार || झूठा।।
द्यानत सुमरन भजन अधार | आगि लगे कछु लेहु निकार ।। झूठा।।85 (3) द्यानतराय के कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी विचार -
___जैन सिद्धान्त में कर्म आठ प्रकार के माने गये हैं, जिनके उत्तर भेद 148 हैं, जो निम्न प्रकार हैं -(1) ज्ञानावरण कर्म (2) दर्शनावरण कर्म (3) वेदनीय कर्म (4) मोहनीय कर्म (5) आयुकर्म (6) नामकर्म (7) गोत्रकर्म तथा (8) अन्तराय कर्म । कुल जोड़ उत्तर भेदों का योग 148 निम्न है -
(1) ज्ञानावरण कर्म 5 प्रकार के होते हैं, जो निम्न प्रकार हैं - 1. मतिज्ञानावरण - जिसके द्वारा मतिज्ञान ढका जावे। 2. श्रुतज्ञानावरण - जिसके द्वारा श्रुतज्ञान ढका जावे । 3. अवधिज्ञानावरण - जो अवधिज्ञान को ढके (आवरण करे)। 4. मनःपर्ययज्ञानावरण - जो मनःपर्ययज्ञान का आवरण करे। 5. केवलज्ञानावरण - जो केवलज्ञान को आवरण करे।
(2) दर्शनावरण - यह 9 प्रकार का है, जो जीव के दर्शन को आवरण करता है -
1. चक्षुदर्शनावरण- यह चक्षुओं से दर्शन नहीं होने देता।
2. अचक्षुदर्शनावरण- जो चक्षु के अलावा अन्य इन्द्रियों से दर्शन नहीं होने देता।