________________
कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना . 105 है। वे छह द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल हैं। इन छहों द्रव्यों का संयोग ही विश्व कहलाता है। चराचर जगत इन छहों द्रव्यों का ही प्रतिरूप है। इस जगत की बनावट ऊँचाई, लम्बाई आदि का करणानुयोग गर्भित अध्ययन कवि द्यानतरायजी की 'चरचाशतक' में मिलता है।
कवि द्यानतराय ने ऊर्ध्व, मध्य, अधोलोक के प्रकार से तीन लोक बताये हैं एवं तीनों लोकों को ही जगत या संसार कहते हैं। तीन लोक का स्वरूप बताते हए वे लिखते हैं -
पूरब पश्चिम सात नर्क तलै राजू सात, आगै धरा मध्यलोक राजू एक रहा है, ऊँचैं बढ़ि गया ब्रह्मलोक राजू पाँच भया, आगै घटा अंत एक राजू सरदहा है। दच्छिन उत्तर आदि मध्य अंत राजू सात ऊँचा चौदह राजू षट् द्रव्य भरा लहा है। . असंख्यात परदेश मूरतीक कियो. भेस,
करै धरै हरै कौन स्वयं सिद्ध कहा है।।७० ...
अर्थात् सातवें नरक के नीचे (जहाँ कि त्रस जीव नहीं हैं - निगोदिया जीव भरे हैं) इस लोक की चौड़ाई पूर्व से पश्चिम तक सात राजू है। उससे ऊपर क्रम से घटता गया है, सो मध्यलोक में सुदर्शन मेरु की जड़ में केवल एक राजू चौड़ा रह गया है। आगे फिर विस्तार हो गया है, सो ब्रह्म स्वर्ग के अन्त में पाँच राजू होकर फिर घटने लगा है और अन्त में सिद्धालय के ऊपर फिर एक राजू रह गया है। यह जगत की पूर्व से लेकर पश्चिम तक चौड़ाई बतलाई गई है। अब उत्तर-दक्षिण की मोटाई बतलाते हैं। आदि, मध्य और अन्त में सब जगह अर्थात् मूल से लेकर लोक शिखर के अन्त तक सर्वत्र सात राजू मोटाई है और ऊँचाई आदि से अन्त तक की चौदह राजू है। इस लोक में जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छहों द्रव्य भरे हुए हैं। उसके असंख्यात प्रदेश हैं। इसको न कोई बनाता है, न कोई धारण करता है और न कोई संहार करता है।
(क) संसार की असारता- कवि द्यानतराय ने भी कबीर, सूरदास आदि भक्त कवियों की तरह संसार को क्षणभंगुर एवं असार बताया है। .
जैसा कि उन्होंने एक पद में लिखा है -