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कविवर द्यानतराय के साहित्य में प्रतिबिम्बित अध्यात्म चेतना 95 (4) कुन्दकुन्द के अनुसार आत्मा का स्वरूप
जिस सत्ता को अन्य भारतीय दर्शनों में साधारणतया आत्मा कहा गया है, उसी को कुन्दकुन्द ने 'जीव' की संज्ञा दी है। वस्तुतः जीव और आत्मा एक ही सत्ता के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं। चेतना जीव का लक्षण है। समस्त सुख-दुःख की प्रतीति इसी चेतना से होती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने जीव के सर्वांगीण स्वरूप को इस प्रकार लिखा है - . जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग विसेसिदा पहू कत्ता।
भोत्ता य देह भेत्ती णहि भुत्तो कम्म संजत्तो।165
जीव चैतन्य स्वरूप है, वह जानने-देखनेरूप उपयोगवाला है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, अपने शरीर के बराबर है तथा यह मूर्तिक नहीं है, फिर भी कर्म संयुक्त है। (5) पूज्य कानजी स्वामी के अनुसार आत्मा का स्वरूप
पूज्य कानजी स्वामी ने जगत की समस्त आत्माओं को भगवान का दर्जा देकर,स्वभाव से सभी जीवों को भगवान आत्मा कहा है। उनके अनुसार जो जीव अपनी आत्मा के स्वरूप को नहीं जानते वे जीव स्वभाव से तो भगवान हैं किन्तु प्राप्त पर्याय में तन्मयता के कारण अपने ज्ञायक स्वरूप से अनभिज्ञ है। कानजी स्वामी अपने प्रवचनों में ऐसे जीवों को 'भूलेला भगवान' कहकर सम्बोधित करते थे। कानजी स्वामी के अनुसार आत्मा सर्वशक्ति सम्पन्न, प्रभू, नित्य, अजन्मा,एक एवं अनादि तत्त्व है। (6) महर्षि गौतम के आत्मा सम्बन्धी विचार
गौतम के मतानुसार आत्मा एक द्रव्य है। सुख-दुःख, राग-द्वेष, इच्छा, प्रयत्न और ज्ञान आत्मा के गुण हैं। धर्म और अधर्म भी आत्मा के गुण हैं और शुभ-अशुभ कर्मों से उत्पन्न होते हैं। गौतम आत्मा को अचेतन स्वीकारते हैं। आत्मा में चेतना का संचार एक विशेष परिस्थिति में होता है। चेतना का उदय आत्मा में तभी होता है, जब आत्मा का सम्पर्क मन के साथ तथा मन का इन्द्रियों के साथ सम्पर्क होता है तथा इन्द्रियों का बाह्य जगत के साथ सम्पर्क होता है। यदि आत्मा का ऐसा सम्पर्क न हो तो आत्मा में चैतन्य का आविर्भाव नहीं हो सकता है। इस प्रकार चैतन्य. आत्मा का आगन्तुक गुण है। (7) कणाद के आत्मा सम्बन्धी विचार
. कणाद ने आत्मा उस सत्ता को कहा है, जो चैतन्य का आधार है। इसीलिए कहा गया है कि आत्मा वह द्रव्य है, जो ज्ञान का आधार है।