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।। लघु शान्ति विधान ।।
'ये सब ऊर्ध्वलोक जिनमन्दिर, तीनों लोकों में विख्यात । भाव - भक्ति से पूजन करते, पाऊँ स्वामी समकित प्रात ।। ॐ ह्रीं श्री ऊर्ध्वलोकसम्बन्धित्रयविंशत्यधिक-सप्तनवतिसहस्रचतुरशीतिलक्षजिनालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
तीन लोक के कुल आठ करोड़ छप्पन लाख सतानवे हजार चार सौ इक्यासी अकृत्रिम जिनालयों को समुच्चय पूर्णार्ध्य तीन लोक के सर्व अकृत्रिम, जिनभवनों को वन्दन कर। निज - स्वभाव की ओर लक्ष्य दूँ, सारे ही प्रभु बन्धन हर ।। सर्व जिनालय आठ कोटि अरु, छप्पन लाख महा हितकर । सन्तानवे सहस्र चार सौ इक्यासी पूजूँ सुखकर ।। सुखद शान्ति पाऊँ हे स्वामी, यही भावना है निशदिन । अष्ट कर्म से मुक्त बनूँ मैं, राग-द्वेष नायूँ गिन-गिन ।। ॐ ह्रीं श्री त्रिलोकसम्बन्धि एकाशीतिचतुःशतकाधिकसप्तनवतिसहस्र षट्-पञ्चाशत्लक्ष-अष्टकोटि- जिनालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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तीन लोक के सर्व कृत्रिम जिनालयों को अर्घ्य जम्बू-धातकी - पुष्करार्ध के, कृत्रिम जिनालय मैं वन्दूं । देवों मनुजों द्वारा निर्मित, अनगिनती मन्दिर वन्दूँ ।। मनुजलोक में ही होते हैं, इनको सादर करूँ प्रणाम । परम शान्ति रसपान करूँ मैं, पाऊँ शाश्वत निज ध्रुवधाम || ॐ ह्रीं श्री अढाईद्वीपस्थ-सर्वकृत्रिमजिनालयेभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । तीन लोक की सर्व जिन-प्रतिमाओं को अर्घ्य तीन लोक की सर्व कृत्रिम - अकृत्रिम प्रतिमायें वन्दूँ । भावसहित सबकी पूजन कर, राग-द्वेष कल्मष हर लूँ ।। ॐ ह्रीं श्री कृत्रिमाकृत्रिमजिनालयान्तर्गतसर्वजिनप्रतिमाभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (१८)