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= ॥ लघु शान्ति विधान ॥ = तृतीयत्रयी के इक्यानवे, जिनालय नित प्रति करूँ प्रणाम। सर्व जिनालय तीन शतक नौ, वन्दूँ पाऊँ निज ध्रुवधाम।। ॐ ह्रीं श्री नवग्रीवकसम्बन्धि-नवाधिकत्रयशतकजिनालयेभ्योऽयं
निर्वपामीति स्वाहा। नव-अनुदिशके नौ जिनालयों को अर्घ्य नव अनुदिश का प्रथम जिनालय, है आदित्य नाम विख्यात । द्वितीय जिनालय अर्चिजाति में, तृतीय अर्चिमालिनीसुख्यात॥ चौथा र पाँचवा वैरोचन, छठा सौम्य सप्त सौम्यरूपक सिद्ध। अष्टम अंकनवम स्फटिकसब, मिल नौ जिनगृह सुप्रसिद्ध ॥ नव अनुदिश के देव सभी, दो भव अवतारी होते हैं। परम शान्ति वे ही पाते हैं, जो जिन-ज्ञान सँजोते हैं।। ॐ ह्रीं श्री नवानुदिशस्थित-नवजिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। पंच-अनुत्तरकेपाँच जिनालयों को अर्घ्य
(रोला) प्रथम अनुत्तर एक जिनालय विजय जानिये । ' द्वितीय अनुत्तर वैजयन्त है एक मानियें। तृतीय अनुत्तर जयन्त में भी एक जानिये । चतुर्थ अपराजित में जिनमन्दिर एक जानिये ।। पंचम भवन सर्वार्थसिद्धि में एक मानिये। पंचोत्तर के पाँच जिनालय श्रेष्ठ मानिये। देव यहाँ के इक भव अवतारी सुजानिये । तैंतीस सागर आयु सदा ही भव्य जानिये ।। ॐ ह्रीं श्री पंच-अनुत्तरसम्बन्धि-पंचजिनालयेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा। ऊर्ध्वलोककेसर्वचौरासीलाखसतानवेहजार तेईसजिनालयों को पूर्णार्घ्य
(ताटंक) स्वर्गादिक ग्रीवक-अनुदिशि, पंचोत्तर के जिन चैत्यालय। Be लाख चौरासी सन्तानवे सहस्र, तेईस स्व सौख्यालय ॥
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