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________________ तीन लोक को क्षुब्ध करने में सक्षम प्रतिकूलतम परिस्थिति भी इसकी प्रतीति को परिवर्तित करने में सक्षम नहीं होती है। सभी गुणों का परिणमन इसका ही अनुगामी होने से तथा इसमें कदापि विकृति नहीं होने से ही सिद्ध भगवान लौटकर संसार में नहीं आते हैं। 9. क्षायिक-चारित्र - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि अनन्त वैभव सम्पन्न अपने भगवान आत्मा में परिपूर्ण स्थिरता से, चारित्रमोहनीय कर्म की पूर्ण क्षयरूप दशा के समय व्यक्त हुए चारित्र गुण के परिपूर्ण विकसित यथाख्यात चारित्ररूप भाव को क्षायिक-चारित्र कहते हैं। समस्त लोकालोक को जानते-देखते होने पर भी इसके कारण कभी भी अतीन्द्रिय निराकुल सुख खण्डित नहीं होता है। इसप्रकार क्षायिक भाव के नौ भेद हैं। प्रश्न 5: क्षय संबंधी भावों को क्षायिक भाव कहते हैं; क्षय आठों कर्मों का होता है; तब फिर क्षायिक भाव के उन सभी संबंधी भेद क्यों नहीं किए गए हैं ? ये नौ भेद ही क्यों किए गए हैं ? उत्तरः क्षय संबंधी भावों को क्षायिक भाव कहते हैं; क्षय आठों ही कर्मों का होता है - ये दोनों ही सत्य तथ्य हैं; सभी कर्मों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के अंत में सिद्ध दशा की व्यक्तता के समय होता है। वहाँ उन संबंधी आठ भाव/गुण जिनागम में वर्णित भी हैं; तथापि यहाँ इस अपेक्षा को गौणकर मात्र चार घाति कर्म से रहित, अनन्त चतुष्टय सम्पन्न अरहंत भगवान की अपेक्षा इसके भेद किए गए हैं। ज्ञानावरण के क्षय संबंधी क्षायिक ज्ञान, दर्शनावरण के क्षय संबंधी क्षायिक दर्शन मोहनीय के क्षय संबंधी क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र तथा पाँच प्रकृतिवाले अंतराय के क्षय संबंधी क्रमशः क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिक वीर्य – इन्हें नौ लब्धिआँ भी कहते हैं। __ मात्र चार घाति कर्मों के क्षय की मुख्यता से क्षायिक भाव के भेद करने के कुछ कारण इसप्रकार हैं 1. प्रत्येक प्राणी अनंतसुख चाहता है। वह अघाति कर्मों के क्षय के बिना ही मात्र घाति कर्मों के क्षय में भी प्रगट हो जाता है; अतः इनकी मुख्यता से ही ये भेद किए गए हैं। ____ 2. मात्र इनके क्षय में ही परमपूज्य परमात्मा दशा/भगवत अवस्था/आदर्श स्थिति प्रगट हो गई है; अतः इनकी मुख्यता से ही ये भेद किए गए हैं। तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /93
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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