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करता हुआ भी अपनी निष्कषाय वृत्ति के कारण पंचेन्द्रिय विषय-भोगों के प्रति विरक्त रहता है।
इसमें व्यक्त हुई वीतरागता वास्तविक धर्म होने से निश्चय ब्रम्हचर्य प्रतिमा है तथा नवबाड़ पूर्वक मैथुन मात्र के त्यागरूप शुभभाव तथा तदनुकूल प्रवृत्तिआँ उसकी निमित्त या सहचारी होने के कारण उपचार से ब्रम्हचर्य प्रतिमा कहलाती हैं।
प्रश्न 14: आरम्भत्याग प्रतिमा का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः दर्शनमोहनीय, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी क्रोधादि विकृतिओं के अभाव पूर्वक प्रगट हुए सम्यक् रत्नत्रयसम्पन्न देशसंयमी जीव के प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकृतिओं के अत्यधिक मन्द हो जाने पर, संसार-शरीर भोगों के प्रति तीव्र अनासक्ति भाव हो जाने से तथा प्राणीमात्र के प्रति दया का परिणाम प्रबल हो जाने से हिंसा आदि पापोत्पादक गृह कार्य/आरम्भ करने का अशुभ परिणाम नष्ट हो जाता है, यह आरम्भ त्याग प्रतिमा है। कविवर पं. बनारसीदास जी वहीं, छंद 68 द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - .. . "जो विवेक विधि आदरै, करै न पापारम्भ ।
सो अष्टम प्रतिमा धनी, कुगति विजय रणथम्भ ।। जो विवेकपूर्ण पद्धति का आदर करता हुआ पापमय आरम्भ नहीं करता है, वह कुगति पर विजय पाने के लिए रणस्तम्भ के समान, आत्मवैभववान आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक है।" ___ आचार्य समन्तभद्रस्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 144वें छंद द्वारा इसे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति।
प्राणातिपातहेतोर्योसावारम्भविनिवृत्तः ।। जो जीव प्राण-अतिपात/प्राणघात/हिंसा के कारणभूत सेवा/नौकरी, कृषि/ खेती, वाणिज्य/व्यापार आदि आरम्भ का त्याग करता है, वह आरम्भत्याग नामक आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक है।"
वास्तव में बाह्य धन-सम्पत्ति आदि रंचमात्र भी सुख की कारण नहीं है; वह कमाने रूप अपने विकल्पों या श्रम से इकट्ठी भी नहीं होती है; सुरक्षा करने से सुरक्षित भी नहीं रहती है। उसका रहना या नहीं रहना, उसकी अपनी उपादानगत योग्यता तथा निमित्तरूप में पूर्ववद्ध पुण्य-पाप कर्मों के उदयानुसार होता है। अपने
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /71