________________
उत्तरः दर्शनमोह, अनंतानुवंधी और अप्रत्याख्यानावरण संबंधी विकारों के अभाव में तथा प्रत्याख्यानावरण संबंधी विकारों की मंदता में प्रगट हुई शुद्ध परिणति को अधिकाधिक बढ़ाने के लिए यह सम्यग्दृष्टि व्रती श्रावक चौबीस घंटों में तीन बार कम से कम एक-एक अंतर्मुहूर्त के लिए बुद्धिपूर्वक सम्पूर्ण सावद्य योगों का त्यागकर, स्वरूप-स्थिरता का प्रयास करता हुआ; प्राणीमात्र के प्रति, समस्त . परिस्थितिओं, संयोगों के प्रति समताभाव रखने का अभ्यास करता है । विशिष्ट वीतरागता के बल पर इस अभ्यास में सफलतापरक दशा ही श्रावक की तीसरी सामायिक प्रतिमा है।
कविवर पं. बनारसीदासजी वहीं, छंद 61-62 द्वारा इसका स्वरूप इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
" द्रव्य भाव विधि संजुगत, हिये प्रतिज्ञा टेक । तजि ममता समता गहै, अंतरमुहुरत एक । । जो अरि मित्र समान विचारैं, आरत रौद्र कुध्यान निवारै । संयम सहित भावना भावै, सो सामायिक वंत कहावै ।।
द्रव्य और भाव - विधिपूर्वक, हृदय में प्रतिज्ञा धारण कर, एक अंतर्मुहूर्त पर्यंत जो ममत्व छोड़कर समताभाव धारण करता है, शत्रु-मित्र आदि सभी को एक समान जानता हुआ आर्त-रौद्र रूप कुध्यानों का निवारण करता है, संयमपूर्वक स्वरूपलीनता की भावना भाता है / तद्रूप परिणमित होने का प्रयास करता है; वह सामायिक प्रतिमाधारी कहलाता है । "
.
सामायिक की द्रव्य और भाव विधि का निरूपण करते हुए आचार्य समंतभद्रस्वामी रत्नकरण्ड श्रावकाचार के 139 वें श्लोक में लिखते हैं
“चतुरावर्तत्रितयश्चतुप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोग शुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।।
जो चार दिशाओं में तीन-तीन आवर्त करता है, चार दिशाओं में चार प्रणाम करता है, अंतरंग-बहिरंग परिग्रह की चिंता से मुक्त हो कायोत्सर्ग में स्थित रहता है, खंडगासन या पद्मासन में से कोई एक आसन लगाकर मन-वचन-काय - इन तीन योगों को शुद्धकर, तीन सन्ध्याओं (पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह) में वन्दना करता है, वह सामयिक प्रतिमाधारी श्रावक है" ।
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं / 60