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जैन अध्यात्म के क्षेत्र में तो पं. बनारसीदासजी का महत्त्वपूर्ण स्थान है ही; हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी उनका योगदान असंदिग्ध है। मात्र आवश्यकता इस बात की है कि धार्मिक पक्षपात से रहित होकर विचार, भाव, भाषा, साहित्यिक उपादान आदि दृष्टिओं से इनके साहित्य का गम्भीरतम अध्ययन किया जाए।
इसप्रकार पं. बनारसीदासजी अपने आत्मसाधना और काव्यसाधना – दोनों ही क्षेत्रों के अनुपम व्यक्ति रहे हैं।
प्रश्न 2: पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की सामान्य दशा का वर्णन कीजिए।
उत्तरः जाति की अपेक्षा षट् द्रव्यमयी और संख्या की अपेक्षा अनन्तानन्त द्रव्यमयी इस लोक में प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से ही अपने से पूर्णतया अभिन्न और पर से पूर्णतया भिन्न एकत्व-विभक्त स्वभावी है। प्रत्येक द्रव्य अनंत शक्तिओं का संग्रहालय, अनंत गुणों का गोदाम, अनंत स्वभावों का सागर, अनंत वैभव सम्पन्न होने से अपनी सीमा में रहता हुआ, पर से पूर्ण निरपेक्ष रह, सुव्यवस्थित रूप में सतत अपना कार्य करता रहता है । यद्यपि जीव द्रव्य का भी ऐसा ही स्वभाव है। यह भी पर से पूर्ण निरपेक्ष रहकर ही अपना कार्य कर रहा है तथा स्व-पर प्रकाशक ज्ञान शक्ति से सम्पन्न होने के कारण तात्कालिक योग्यतानुसार स्व-पर पदार्थों को जानता भी है; तथापि अनादि से ही अपने स्वभाव को भूला हुआ होने से इसे अपने ज्ञान में जो भी पदार्थ ज्ञात होता है; यह उसे अपना मानकर, जानकर, उसमें राग-द्वेष करने लगता है। यह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप प्रवर्तन ही इसके अनन्त दुःखों का एकमात्र कारण है।
भव्यता का परिपाक होने पर विशिष्ट क्षयोपशम तथा विशुद्धि लब्धि सम्पन्न सैनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, जागृत, ज्ञानोपयोगी जीव सद्देव-शास्त्र-गुरु के माध्यम से देशना/सदुपदेश प्राप्तकर, प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों, स्व-पर पदार्थों, हितकारीअहितकारी भावों का यथार्थ निर्णयकर अन्तरोन्मुखी पुरुषार्थ द्वारा अपने में अपनत्व लाने रूप पुरुषार्थमय प्रायोग्य लब्धि को पार करता हुआ, उत्तरोत्तर शनैःशनैः विकल्पों के शमन रूप करणलब्धि के अंतिम समय बाद क्षण भर के लिए निर्विकल्प हो स्वरूपलीनं हो जाता है; अपने अनंत दुःखों को समाप्त कर आत्मसंतुष्टिरूप आत्मानुभव जन्य अतीन्द्रिय आनन्द का पान करता है। यह अपने भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से माननेरूप सम्यग्दर्शन, अपनत्वरूप से जाननेरूप
पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं /50