SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न 6ः लक्षणाभास और उसके भेदों का स्वरूप स्पष्ट कीजिए । उत्तरः जो लक्षण यथार्थ लक्षण नहीं होने पर भी लक्षण के समान प्रतिभासित होता है, उसे लक्षणाभास कहते हैं । " लक्षणस्वरूपरहितः लक्षणवदवभासमानः •लक्षण के स्वरूप से रहित, लक्षण के समान प्रतिभासित होनेवाला लक्षणाभासः . लक्षणाभास हैं । ” लक्षण+आभास लक्षणाभास । तात्पर्य यह है कि सदोष लक्षण लक्षणाभास है। इसके तीन भेद हैं – अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव । अव्याप्ति – जो लक्षण लक्ष्य के एकंदेश में रहता है, वह लक्षण का अव्याप्ति नामंक दोष अर्थात् अव्याप्ति लक्षणाभास है । न्यायदीपिका में इसे इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - - - “लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तं, यथा गोःशावलेयत्वम् – लक्ष्य के एकदेश में लक्षण को रहना अव्याप्त है; जैसे गाय का शावलेयत्व / चितकबरापना ।” यद्यपि गाय का रंग चितकबरा होता है; तथापि सभी गायों का रंग चितकबरा नहीं होने से यह लक्षण अव्याप्त दाँषवाला है। .... अ=नहीं, व्याप्त= फैलना/पसरना । जिसका लक्षण बनाया जा रहा है, उस सम्पूर्ण लक्ष्यभूत पदार्थ, में जो लक्षण नहीं रहता है, उसके कुछ ही अंशों में रहता है, वह अव्याप्ति लक्षणाभास है । 'कुछ ही अंशों में' से तात्पर्य यह है कि जिसका लक्षण किया जा रहा है, उसके सम्पूर्ण द्रव्य में, सम्पूर्ण क्षेत्र में, सभी कालों में और समस्त भावों में नहीं रहकर उसके कुछ ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में रहना । जैसे गाय का लक्षण चितकबरापना, गाय रूपी सभी द्रव्यों में नहीं पाया जाता है; जीव का लक्षण संसारी, सभी जीवों में नहीं पाया जाता; जीव का लक्षण केवलज्ञान, मतिज्ञान, भव्यत्व, मनुष्य आदि सभी जीवों में नहीं होने के कारण अव्याप्ति . लक्षणाभास है । 2. अतिव्याप्ति – जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में पाया जाता है, वह लक्षण का अतिव्याप्ति नामक दोष अर्थात् अतिव्याप्ति लक्षणाभास है । न्यायदीपिका में इसे इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तं, यथा तस्यैव पशुत्वम् – लक्षण का लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में रहना अतिव्याप्त है; जैसे उसी गाय का लक्षण पशुपना । ' ं तत्त्वज्ञान विवेंचिका भाग एक / 41
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy