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1. आत्मभूतलक्षण - आत्म-अपना, भूत होना; अर्थात् जो लक्षण लक्ष्यभूत वस्तु का स्वयं/अपना होता है, वस्तु के साथ एकमेक होकर तादात्म्यरूप से रहता है, वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ, सदा रहनेवाला/त्रैकालिक होता है, वह आत्मभूतलक्षण है। जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता, नमक का लक्षण खारापन, पुद्गल का लक्षण वर्णादि, जीव का लक्षण ज्ञानादि इत्यादि।
इस लक्षण को वस्तु से कभी भी पृथक् नहीं किया जा सकता है। वह वस्तु जहाँ, जैसी, जितने में रहेगी; उसका यह लक्षण भी वहीं, वैसा ही, उतने में ही रहेगा।
. न्यायदीपिका में इसे इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - ___ “यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम् – जो वस्तु के स्वरूप में अनुप्रविष्ट/घुलामिला/एकमेक है, वह आत्मभूत लक्षण है।" ।
यह वस्तु का वास्तविक स्वरूप होने से यथार्थ/भूतार्थ लक्षण है। त्रिकाल वस्तु की पहिचान इससे ही होती है। त्रैकालिक, पर से पूर्ण निरपेक्ष, असंयोगी वस्तु का निर्णय इसी लक्षण से होता है। असंयोगी आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान भी इसी लक्षण से होता है।
2. अनात्मभूतलक्षण – अन्=नहीं, आत्म अपना, भूत होना; अर्थात् जो लक्षण लक्ष्यभूत वस्तु का स्वयं/अपना नहीं होता है, वस्तु के साथ एकमेक होकर तादाम्यरूप से नहीं रहता है; वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ, सदा रहनेवाला, त्रैकालिक नहीं होता है, वह अनात्मभूतलक्षण है। जैसे – किसी व्यक्ति का लक्षण दंड (डंडा) वाला, चश्मावाला बनाना इत्यादि । यह दंड या चश्मा उस समय समूह में से किसी विशिष्ट व्यक्ति को पृथक् करने का कारण होने से लक्षण है; तथापि वह त्रैकालिक नहीं है; क्योंकि वे, व्यक्ति से पृथक् होने के कारण, व्यक्ति उनसे सहित सदा नहीं पाया जा सकता है। इसप्रकार यह लक्षण मात्र उस समय, वैसी परिस्थिति में ही किसी की पहिचान का चिन्ह बन सकता है; सदा और सर्वत्र नहीं। यह लक्षण वस्तु के साथ एकमेक नहीं होने से, उससे पृथक् होने पर लक्षण नहीं कहलाता है। न्यायदीपिका में इसे इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"तद्विपरीतं यद्वस्तुस्वरूपाननुप्रविष्टं तदनात्मभूतम् – उस (आत्मभूत)से विपरीत जो लक्षण वस्तु के स्वरूप में अननुप्रविष्ट है/घुलामिला/एकरूप नहीं है, वह अनात्मभूतलक्षण है।"
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /39