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सरल संस्कृतमय हैं । इस रचना में आपने प्रमाण, नय आदि का संक्षिप्त परंतु अत्यंत विशद और तर्कसंगत वर्णन किया है। अपने विषय-प्रतिपादन के संदर्भ में आप स्वयं लिखते हैं कि यह न्यायदीपिका नामक संदर्भ ग्रंथ मैंने बालबुद्धि जीवों के लिए • अत्यंत संक्षेप में स्पष्टरूप से न्याय समझाने के लिए लिखा है। आप अपने प्रत्येक प्रतिपाद्य विषय का विश्लेषण उद्देश, लक्षण-निर्देश और परीक्षा के माध्यम से करते हैं। ‘लक्षण का लक्षण' के रूप में 'असाधारणधर्मवचनं लक्षणम्'की मीमांसा न्याय साहित्य में आपकी एक अपूर्व देन है।
इसप्रकार द्रव्यानुयोग के अध्यात्म को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक न्याय , के विषयों की स्पष्ट, विशद, संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से आपकी प्रस्तुत कृति ‘न्यायदीपिका' एक अनुपम रचना है । हमें न्याय-विषय का परिज्ञान करने के लिए इस ग्रंथ का गंभीरता पूर्वक अध्ययन, मनन, चिंतन अवश्य करना चाहिए।
प्रश्न 2: लक्षण किसे कहते हैं ? लक्ष्य और अलक्ष्य की परिभाषा भी बताइए। - . उत्तरः लक्षण - अनेक मिली हुई वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को पृथक् करनेवाले हेतु को लक्षण कहते हैं। न्यायदीपिका नामक ग्रंथ में इसकी परिभाषा इसप्रकार दी गई है -
_ “व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिर्हेतुर्लक्षणम् – मिली हुई वस्तुओं को पृथक् करने का ' हेतु लक्षण है।" . आचार्य अकलंकदेव अपने तत्त्वार्थवार्तिक (राजवार्तिक) ग्रंथ में लक्षण की परिभाषा इसप्रकार लिखते हैं – “परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् - परस्पर मिली हुई वस्तुओं में जिसके द्वारा अन्यता/पृथक्ता देखी जाती है, वह लक्षण है।"
लक्ष्य - जिसका लक्षण बनाया जा रहा है, जिसकी पहिचान की जा रही है, वह लक्ष्य कहलाता है। - जैसे संख्या की अपेक्षा अनंतानंत और जाति की अपेक्षा छह द्रव्यों के साथ रहनेवाले अपने जीव को यदि हम पहिचानना चाहते हैं तो ‘उपयोग/जानना-देखना' लक्षण से पहिचानते हैं; अर्थात् जो उपयोगस्वभावी है, उसे जीव कहते हैं। इसमें उपयोग लक्षण है और जीव लक्ष्य है।
निष्कर्ष यह है कि पहिचानने के कार्य में हम जिसकी पहिचान कर रहे हैं, वह लक्ष्य तथा जिससे पहिचान कर रहे हैं, वह लक्षण कहलाता है।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग. एक /37