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गर्भित है। इनमें से किसी भी पुण्य को मुक्ति का कारण मानने पर अनेकानेक आपत्तिओं का सामना करना पड़ेगा; उनमें से कुछ इसप्रकार हैं
1. पुण्य परिणामरूप शुभभाव मोक्ष का कारण है तथा हिंसा आदि अशुभभाव पाप बंध के कारण हैं; तब फिर पुण्य बंध किससे होगा ?
2. आस्रव और बंध के पुण्यास्रव और पुण्यबंध - ये भेद नहीं बन सकेंगे । 3. जीव-भावों के शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुभोपयोग – ये तीन भेद नहीं बनेंगे ।
4. यथाख्यात चारित्र सम्पन्न ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यंत जीवों के पुण्य परिणाम नहीं होने से उनकी मुक्ति नहीं हो सकेगी।
5. इससे शुक्लध्यान, गुणस्थान के सभी भेद तथा बहिरात्मा आदि आत्मा के तीन भेद नहीं बन सकेंगे ।
6. पापकर्म से नरकादि गतिऔं मिलतीं हैं, पुण्यकर्म से मोक्ष मिलता है, तब फिर स्वर्गादि गति किससे मिलेंगी ?
7. अभव्य जीव भी शुक्ल लेश्यामय पुण्य परिणाम कर लेता है; तब फिर उसके दृष्टि मोक्ष आदि चार मोक्षों में से एक भी मोक्ष क्यों नहीं होता है ?
8. नियामक तादात्म्य संबंधवाले कारण कार्य में विद्यमान रहते हैं - इस न्याय से सिद्ध भगवान के पुण्य परिणाम मानने पड़ेंगे, तब फिर सिद्ध और संसारी का भेद किस आधार से बनेगा ?
9. कारण के समान ही कार्य होता है ( कारणानुविधायीनि कार्याणि) इस न्याय के अनुसार पुण्य परिणाम परलक्षी, पराधीन, आकुलतामय परिणाम होने से उससे स्वलक्षी, स्वाधीन, निराकुलतामय मोक्षदशा कैसे प्रगट होगी ?
10. एक ही समान देव-शास्त्र - गुरु का समागम आदि पुण्य सामग्री की उपस्थिति में भी पृथक्-पृथक् जीव पृथक्-पृथक् गतिऔं क्यों प्राप्त करते हैं ?
इत्यादि अनेकानेक आपत्तिओं / समस्याओं का समाधान कर पाना असम्भव
है ।
इसीप्रकार पुण्य को मुक्ति का कारण मानने पर आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व संबंधी विपरीतताएं होंगी; जिससे सभी तत्त्वों संबंधी विपरीत मान्यताएँ आ जाएंगी।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 33