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को समझकर उससे भिन्न समस्त पर-पदार्थों से ममत्व हटाकर अपने ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान आत्मा में एकाग्र होने में है । लौकिक लाभ-हानि तो पुण्य-पाप का खेल है, उसमें आत्मा का हित नहीं है। यह आत्मा व्यर्थ ही पुण्य के उदय में हर्षित और पाप के उदय में खिन्न हो दुखी हो रहा है। मनुष्य भव की सार्थकता तो समस्त जगत से ममत्व हटाकर आत्मकेन्द्रित होने में है। . ___भगवान की दिव्यवाणी सुनकर पाँचों पाण्डवों ने उसी समय भगवान से भवभ्रमण का नाश करनेवाली दिगम्बर-दीक्षा ग्रहण कर ली। उनकी माता कुन्ती तथा द्रोपदी, सुभद्रा आदि अनेक रानिओं ने आर्यिका राजीमती (राजुल) से आर्यिका के व्रत स्वीकार कर लिए। ___पाँचों पाण्डव मुनिराज आत्मसाधना में तत्पर हो तपश्चरण करने लगे। एक बार वे शत्रुजय गिरी पर ध्यानमग्न थे। उस समय किसी कार्यवश दुर्योधन का वंशज/यवरोधन/कुर्योधन वहाँ आया। इन पाण्डवों को देखकर उसकी क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठी। वह सोचने लगा कि ये वही पाण्डव हैं जिन्होंने मेरे दुर्योधन आदि कौरववंशी रिश्तेदारों की दुर्दशा की थी। उस समय ये शक्ति सम्पन्न थे; अतः मैं कुछ नहीं कर सका; परन्तु अब ये निःसहाय हैं; अस्त्र-शस्त्र विहीन हैं; इस समय इनसे बदला लेना चाहिए; इन्हें अपनी करनी का मजा चखाना चाहिए | यह सोचकर उसने लोहे के गहने बनवाकर, उन्हें आग में तपाकर, लाल सुर्ख कर आत्मध्याननिमग्न पाँचों पाण्डवों को पहिना दिए और कहने लगा - तुमने हमारे मामाओं से राज्य प्राप्त किया था। मैं तुम्हें आभूषण पहिना रहा हूँ।
इस भयंकर उपसर्ग से पाण्डवों का पार्थिव देह जलने लगा। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तो ज्ञानानन्द स्वभावी अपने आत्मा में लीनता रूप अपूर्व शीतल, शान्त अवस्था में क्षपकश्रेणी का आरोहण कर सभी शुभाशुभ भावों, अष्ट कर्मों को भस्म कर, केवलज्ञान प्रगटकर, उसी शत्रुजय गिरी से मुक्त हो गए; परन्तु नकुल और सहदेव की आत्मलीनता कुछ भंग हो गई; जिससे वे देवायु का बंधकर सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र देव हुए। वाद में वहाँ से आकर एक मनुष्य भव धारण कर वे भी मोक्ष प्राप्त करेंगे।
इसप्रकार युधिष्ठिर आदि तीन पाण्डव स्वरूप-स्थिरता के बल पर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म आदि सभी संयोगों और संयोगी भावों से मुक्त हो अनन्तकाल
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /131