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इधर नौवें प्रतिनारायण जरासंध को रत्न-व्यापारी जौहरिओं के माध्यम से जब देव-रचित, सर्व साधन सम्पन्न, अति समृद्ध द्वारिका नगरी का परिचय प्राप्त हुआ तो उसे जीतने के लिए उसने युद्ध की भेरी बजवा दी। अपने-अपने सभी सहयोगी राजाओं को एकत्रित कर दोनों ओर से युद्ध प्रारम्भ हो गया। कौरवों ने प्रतिनारायण जरासंध का और पाण्डवों ने नारायण कृष्ण का साथ दिया। दोनों
ओर से घमासान युद्ध हुआ । अन्ततः विजयश्री कृष्ण को मिली; वे त्रिखण्डाधिपति, अर्धचक्री हो गए। पाण्डवों को महामाण्डलिक राजाओं के रूप में पुनः हस्तिनापुर आदि कुरुक्षेत्र का राज्य मिल गया। ___इनमें से युधिष्ठिर गंभीर प्रकृति के सहज धर्मानुरागी न्यायवंत राजा होने से सत्यवादी, धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से प्रसिद्ध हुए। भीम में शारीरिक बल अतुलनीय था, वे मल्लविद्या में अद्वितीय तथा गदा चलाने में प्रवीण थे। अर्जुन अपनी वाण विद्या में जगत प्रसिद्ध धनुर्धर थे।
पुनः राजा बन जाने पर भी पूर्वभवों में अन्य के बसे हुए घरों को उजाड़ने से बँधा हुआ पापकर्म नष्ट नहीं होने के कारण पुनः उन्हें राज्य से बंचित होना पड़ा। हुआ यह कि अंतःपुर में आए नारद के आगमन से अनभिज्ञ द्रोपदी द्वारा अपनी उचित विनय नहीं पाने से रुष्ट हो नारद ने उसका एक चित्र धातकीखण्ड की अमरकंकापुरी में राजा पद्मनाभ को दिखा दिया। कामासक्त हो पद्मनाभ ने एक देव की सहायता से सोती हुई द्रोपदी को अपने महल में उठवा लिया। बाद में कृष्ण की सहायता से पाण्डवों ने द्रोपदी को प्राप्त किया । द्रौपदी को वापिस लाते समय गंगा नदी के तट पर भीम द्वारा कृष्ण के प्रति मजाक किए जाने से क्रोधित हो कृष्ण ने हस्तिनापुर से पाण्डवों को निष्कासित कर दिया। भटकते-भटकते मथुरा की गुफाओं में उन्हें शरण लेनी पड़ी।
बहुत काल बाद द्वारिका-दाह की भयंकर घटना ने उनके हृदय को झकझोर दिया; उनका चित्त संसार से उदास हो गया। एक दिन वे विरक्त-हृदयी पाण्डव भगवान नेमिनाथ की वन्दना के लिए सपरिवार उनके समवसरण में गए। वहाँ भगवान की दिव्यवाणी सुनकर उनका वैराग्य और अधिक प्रबल हो गया। दिव्यध्वनि में आ रहा था कि भोगों में सच्चा सुख नहीं है; आत्मा स्वयं सुखमय तत्त्व है। उसे सुखी होने के लिए अन्य की अपेक्षा नहीं है। आत्मा का हित तो आत्मा
पाँच पाण्डव /130