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राज्य को लेकर तनाव रहने लगा। भीष्म, विदुर और द्रोणाचार्य ने मध्यस्थता पूर्वक दोनों को आधा-आधा राज्य देकर समझौता करा दिया था, पर उनका मानसिक द्वन्द्व समाप्त नहीं हो सका।
दुर्योधन सतत उन्हें नष्ट करने का विचार किया करता था। एक बार उसने लाक्षागृह बनवाकर कृत्रिम स्नेह दिखाते हुए पाण्डवों को अत्याग्रह पूर्वक उसमें, रहने के लिए बाध्य किया। जब पाण्डव उसमें निश्चिंत हो रहने लगे; तब एक बार उसने अवसर पाकर रात्रि में उसमें आग लगवा दी। लाक्षागृह पूर्णतया जल गया। पाण्डव तो पहले से सावधान होने के कारण सुरंग मार्ग से निकलकर अन्यत्र चले गए; पर लोगों ने यही समझा कि पाण्डव जल गए हैं। इस काण्ड से लोक में कौरवों की निंदा भी अत्यधिक हुई; पर दुर्योधन ने अपने कुशल प्रशासन से पुनः लोगों का मन अपनी ओर आकर्षित कर लिया।
यहाँ पाण्डव छद्मवेष धारण कर गुप्तवास करते हुए घूमते-घूमते एक बार राजा द्रुपद की राजधानी माकन्दी पहुँच गए। वहाँ राजा द्रुपद की कन्या द्रोपदी का स्वयंवर हो रहा था। इस देवो-पुनीत धनुष को चढ़ानेवाला ही द्रोपदी का पति होगा - ऐसी वहाँ घोषणा की गई थी। उस स्वयंवर में दुर्योधन आदि कौरव तथा
और भी अनेक राजा आए हुए थे; पर उस धनुष को कोई भी नहीं चढ़ा सका । विप्रवेशी अर्जुन ने उसे क्रीड़ामात्र में चढ़ा दिया और अपनी प्रतिज्ञानुसार द्रोपदी ने
अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी। • दुर्योधन आदि राजाओं को यह अच्छा नहीं लगा कि उनकी उपस्थिति में एक साधारण विप्र का द्रोपदी वरण करे। इसके लिए उन्होंने अन्य राजाओं को भी भड़काया; जिससे पाँचों पाण्डवों और दुर्योधन आदि अन्यान्य राजाओं के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। धनुर्धारी अर्जुन के समक्ष जब कोई भी धनुर्धारी नहीं टिक सके; तब स्वयं गुरु द्रोणाचार्य उससे युद्ध करने आए । गुरु को सामने आया देखकर विनय से नम्रीभूत हो अर्जुन ने गुरु को नमस्कार परक वाण द्वारा अपना परिचयपत्र गुरु के पास भेजा। ___गुरु द्रोणाचार्य को जब यह ज्ञात हुआ कि ये विप्रवेशधारी अर्जुन आदि पाँच पाण्डव हैं; तो उन्हें अत्यधिक प्रसन्नता हुई। उन्होंने सभी को यह समाचार सुना दिया। एक बार पुनः गुरु द्रोण और भीष्म पितामह ने कौरव और पाण्डवों में मेलमिलाप करा दिया। दोनों पुनः आधा-आधा राज्य लेकर हस्तिनापुर में रहने लगे।
पाँच पाण्डव /128