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है। जैसे जीव, पुद्गल आदि। जिनके प्रदेश तो एक ही हैं; पर नाम, लक्षण आदि भिन्न-भिन्न हैं; उनमें परस्पर अन्यता होती है। जैसे एक ही पदार्थ के द्रव्य, गुण, पर्याय आदि । अन्यता को ही अन्यत्व, तदभाव, अतद्भाव, स्वरूपाभाव आदि कहते हैं।
2. प्रसज्याभाव - तत्त्वार्थराजवार्तिक में आचार्य भट्ट अकलंकदेव लिखते हैं – “प्रत्यक्षो न भवतीत्यप्रत्यक्ष इति प्रसज्यप्रतिषेधो.....। जो प्रत्यक्ष नहीं है, वह अप्रत्यक्ष है - ऐसा प्रसज्याभाव है।"
न्यायविनिश्चयवृत्ति के अनुसार “वस्तु का अभावमात्र दर्शाना प्रसज्याभाव है। जैसे इस भूतल पर घट नहीं है।"
इसप्रकार निषेधवाचक अभाव को प्रसज्याभाव कहते हैं।
3. पर्युदासाभाव – (वहीं) “प्रत्यक्षादन्योऽप्रत्यक्षः इति पर्युदासः - प्रत्यक्ष से अन्य अप्रत्यक्ष है - ऐसा पर्युदासाभाव है।"
इसके द्वारा एक वस्तु के अभाव में दूसरी वस्तु का सद्भाव ग्रहण किया जाता है। जैसे प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है इत्यादि।
इसप्रकार जिनागम में अन्य अभावों की भी चर्चा उपलब्ध होती है।
अभाव की समग्र चर्चा का उद्देश्य मात्र इतना ही है कि प्रत्येक पदार्थ का, उसके अंशों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर हम करने-धरने के भाव से निवृत्त हो, पर से पूर्ण निरपेक्ष, स्वतन्त्र, अनन्त वैभव सम्पन्न अपने ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान
आत्मा को अपनत्वरूप से जानकर, पहिचानकर, उसमें ही स्थिर रहें; जिससे मोह, राग, द्वेष आदि विकारी भावों का अभाव होकर, जीवन सम्यक् रत्नत्रय सम्पन्न अतीन्द्रिय आनन्दमय हो जाए।
इसप्रकार सुखमय जीवन जीने के लिए अभावों को समझना अत्यावश्यक है।
== वस्तु की पर से निरपेक्ष सामर्थ्य नहि स्वतोऽसति शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते___ जो शक्ति स्वयं में नहीं है, उसे अन्य द्वारा नहीं किया जा सकता है। न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते -
वस्तु की शक्तियाँ अन्य की अपेक्षा नहीं रखती हैं। - समयसार १२१ से १२५ गाथा की आत्मख्याति टीका के वाक्यांश
चार अभाव /124