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________________ स्वतन्त्र योग्यता से हुआ है तथा जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति जीव की अपनी स्वतन्त्र योग्यता से हुई है। एक-दूसरे के कारण एक-दूसरे में रंचमात्र कार्य नहीं हुआ है । – यह अभाव के सन्दर्भ में उपर्युक्त कथन की समीक्षा है । - प्रश्न 19: 'कर्म के उदय से शरीर में रोग होता है'के सन्दर्भ में समीक्षा कीजिए । इस कथन की अभावों - उत्तरः कर्म का उदय पौद्गलिक कार्मण वर्गणामय स्कन्ध का परिणमन है और शरीर का रोग पौद्गलिक आहार वर्गणामय स्कन्ध का परिणमन है । इन दोनों में अन्योन्याभाव है; अतः इन दोनों का परिणमन एक-दूसरे से पूर्ण निरपेक्ष, स्वतन्त्रतया अपनी-अपनी योग्यता से हुआ है । कर्म का उदय पूर्वबद्ध कर्म रूप कार्मण वर्गणा का स्वतन्त्र परिणमन है और शरीर में रोग होना आहार वर्गणा का स्वतन्त्र परिणमन है। इसप्रकार अन्योन्याभाव के कारण अपनी-अपनी स्वतन्त्र योग्यता से ही अपने- अपने में कार्य हुआ है; एक-दूसरे के कारण एक-दूसरे का कार्य नहीं हुआ है । - यह अभाव के सन्दर्भ में उपर्युक्त कथन की समीक्षा है । प्रश्न 20 : 'यह आदमी चोर है; क्योंकि इसने पहले स्कूल में पढ़ते समय मेरी पुस्तक चुरा ली थी' - इस कथन की अभाव के सन्दर्भ में समीक्षा कीजिए । उत्तरः इस आदमी की पहले स्कूल में पढ़ते समय पुस्तक चुराने रूप पर्याय में इस वर्तमान पर्याय के अभावरूप प्रागभाव है; जिसके कारण पहले की पर्याय अभी की पर्याय से पूर्ण निरपेक्ष, स्वतन्त्रतया व्ययरूप है तथा अभी की पर्याय पहले की पर्याय से पूर्ण निरपेक्ष, स्वतन्त्रतया उत्पादरूप है। जो पर्याय अभी है ही नहीं तथा जिसमें अभी प्रागभाव है, वह अभी की पर्याय को अपनी दुष्प्रवृत्ति से चोर कैसे बना सकती है? यदि इस व्यक्ति ने पहले पढ़ते समय पुस्तक चुराई थी तो पर से पूर्ण निरपेक्ष उस समय की अपनी स्वतन्त्र योग्यता से और यदि यह व्यक्ति अभी चोर है तो पर से पूर्ण निरपेक्ष इस समय की अपनी स्वतन्त्र योग्यता से है। अभी का पहले की चोर पर्याय में प्रागभाव होने से पहले की चोर पर्याय के कारण अभी यह आदमी चोर नहीं है। यदि यह चोर है तो इस समय की अपनी स्वतन्त्र योग्यता से चोर है - यह अभावों के सन्दर्भ में इस कथन की समीक्षा है । " प्रश्न 21: ज्ञानावरण कर्म और केवलज्ञान में अत्यन्ताभाव तथा कर्म और शरीर में अन्योन्याभाव होने से यदि ये कार्य परस्पर पूर्ण निरपेक्ष, पूर्णतया अपनीअपनी स्वतन्त्र योग्यता से हुए हैं तो जिनागम में उपर्युक्त कथन क्यों मिलते हैं ? तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक / 121
SR No.007145
Book TitleTattvagyan Vivechika Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalpana Jain
PublisherShantyasha Prakashan
Publication Year2005
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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