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प्रश्न 10: अन्योन्याभाव को नहीं मानने पर उत्पन्न होनेवाली समस्याएं स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः अन्योन्याभाव को नहीं मानने पर पुद्गल-स्कन्धों की विविधता नहीं बन सकेगी। करणानुयोग में वर्णित कर्म-नोकर्म के भेद-प्रभेद, 23 प्रकार की वर्गणाएं, उनके विविध कार्य, छह द्रव्य-लेश्याएं, कुल-कोटी आदि किसी भी प्रकार के स्कन्ध की अपेक्षा किए गए भेद-प्रभेद सम्भव नहीं होंगे। पर्वत, भूभाग, क्षेत्र, कृत्रिमअकृत्रिम चैत्य-चैत्यालय, नदी, मेरु आदि की विविधता भी सम्भव नहीं हो सकेगी। स्वर्ग-नरक आदि के भेद-प्रभेद भी नहीं बनेंगे। चरणानुयोग में वर्णित भक्ष्य-अभक्ष्य, पदार्थों की मर्यादाएं, चलितरस-रूप, रस-परित्याग, धान्य त्याग आदि मर्यादाएं भी नहीं बन सकेंगी। __लोक-प्रचलित विविध व्यंजन, विविध उद्योग-धन्धे, बैठने-उठने आदि के विविध साधन, विविध वस्त्र-बर्तन, विविध खेल-खिलौने, विविध वैज्ञानिक शोधखोज, भौतिक संसाधन इत्यादि सभी पौद्गलिक स्कन्धों की पृथक्ता अन्योन्याभाव को अमान्य करने पर अमान्य करनी होगी।
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि अन्योन्याभाव को नहीं मानने पर वर्तमान में दिखाई देनेवाले सभी पुद्गल स्कन्धों को तथा जिनागम में प्रतिपादित विविध पुद्गल स्कन्धों को एक मानना होगा; जो कि वस्तु-व्यवस्था के विरुद्ध अप्रयोगात्मक, मिथ्या मान्यता है।
प्रश्न 11: अन्योन्याभाव को समझने से क्या लाभ है ? उत्तरः अन्योन्याभाव को समझने से होनेवाले कुछ प्रमुख लाभ निम्नलिखित
1. जब वर्तमानकालीन एक पुद्गल स्कन्ध, समकालीन दूसरे पुद्गल स्कन्ध का कुछ भी नहीं कर सकता है; आँख नाक का काम नहीं कर सकती है; नाक, कान का काम नहीं कर सकती है; पुण्य कर्म, पाप कर्म का कार्य नहीं कर सकते हैं; तब फिर वे आत्मा का कुछ भी भला-बुरा कैसे कर सकते हैं? – यह समझ में आ जाने पर 'कर्म हमें परेशान करते हैं, कर्मों के कारण हम धर्म नहीं कर पा रहे हैं', इत्यादि विपरीत मान्यताएं नष्ट होकर अपने भले-बुरे की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर
आत्मोन्मुखी पुरुषार्थ पूर्वक स्वरूप-स्थिरता करके अपना अच्छा करने का भाव जागृत होता है।
चार अभाव /116