________________
यह समझ में आ जाने पर निर्भयता, निश्चिंतता जागृत होकर पराधीनवृत्ति नष्ट होती है और स्वतंत्रता, स्वाधीनता पूर्वक अपनी जिम्मेदारी समझते हुए अपना अच्छा करने के लिए आत्मलीनता का पुरुषार्थ जागृत होता है।
6. सभी पर्यायें क्षणवर्ती हैं, उनका सभी आगामी पर्यायों में अभाव है - यह समझ में आ जाने पर अन्य को या स्वयं को पर्यायरूप से देखने का भाव ही समाप्त हो जाता है; जिससे पर्याय-मूढ़ताजन्य राग-द्वेष नष्ट होकर जीवन सहज समतामय वीतरागता सम्पन्न हो जाता है।
इत्यादि अनेकानेक लाभ इस प्रध्वंसाभाव को समझने से प्राप्त होते हैं। प्रश्न 9: अन्योन्याभाव का स्वरूप स्पष्ट कीजिए।
"स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः - स्वभावान्तर से स्वभाव की पृथक्ता अन्यापोह है।"
वर्तमानकालीन एक पुद्गल स्कन्ध का वर्तमानकालीन दूसरे पुद्गल स्कन्ध में नहीं होना अन्योन्याभाव है। इतरेतराभाव, अन्यापोह इत्यादि इसके पर्यायवाची नाम हैं। अन्यः, अन्य और अभाव – इन तीन शब्दों से मिलकर ‘अन्योन्याभाव'. शब्द बना है; अन्य दूसरे का, अन्य दूसरे में, अभाव नहीं होना; दूसरे का दूसरे में नहीं होना अन्योन्याभाव है। जैसे घट का पट में अभाव, चटाई का पलंग में अभाव, आहार का शरीर में अभाव, आहार वर्गणा का कार्मण वर्गणा में अभाव इत्यादि।
यह अभाव एकमात्र वर्तमान कालीन पुद्गल स्कन्धों में ही घटित होता है । अन्य द्रव्य या पर्यायों में नहीं। पुद्गल स्कन्धों की अपनी एक विशेषता है वह यह कि यद्यपि वर्तमान कालीन विविध स्कन्ध एक-दूसरे रूप नहीं होने से, एक-दूसरे का कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं हैं; तथापि वे कालान्तर में अन्य-अन्यरूप हो सकते हैं। जैसे वर्तमान कालीन वस्त्र और बर्तन पृथक्-पृथक् स्कन्ध होने से एक-दूसरे का कुछ भी कार्य करने में समर्थ नहीं हैं; तथापि कालान्तर में वस्त्रगत परमाणु बर्तन हो सकते हैं और बर्तनगत परमाणु वस्त्र हो सकते हैं अर्थात् वस्त्र-वर्तन मात्र अभी पृथक्-पृथक् हैं, त्रैकालिक नहीं; इसे ही अन्योन्याभाव कहते हैं । यह विशेषता मात्र पुद्गलस्कन्ध में ही होने से यह अन्योन्याभाव भी मात्र उनमें ही घटित होता है। इसे हम इन शब्दों में भी कह सकते हैं कि पुद्गल की वर्तमान कालीन विभाव पर्यायों का पारस्परिक अभाव अन्योन्याभाव है।
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /115