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ज्ञान-दर्शनमय चैतन्य शरीर से सर्वांग सुकोमल हैं। जगत में रहते हुए भी वास्तव में आपका जगत से कुछ भी संबंध नहीं रहा है। आपने जो अंतर्वास/सुख-शान्ति प्रगट की है वह स्वयं से स्वयं के लिए ही प्रगट की है, उसे प्रगट करने में आपको अन्य की रंचमात्र आवश्यकता नहीं पड़ी है। वह प्रगट सुख-शांति भी स्वयं आपके चैतन्यरूपी विशालवन में मात्र आपके ही जीवन को सुखद/आनंदित करने के लिए व्यक्त हुई है; उसे अन्य से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। अनंतानंत विविध ज्ञेय आपमें प्रतिबिम्बित होते हुए भी आप उनसे पूर्णतया अप्रभावित रहते हुए अपने आनंद में संतुष्ट हैं। हे भगवन ! आपके इस ज्ञानरूपी पुष्प को देखकर मेरे मन को भी एक राह/सभी प्रसंगों में आनंदमय जीवन जीने की कला प्राप्त हो गई है; जिससे मेरा मनरूपी पक्षी अत्यन्तं प्रसन्न होकर आपकी उपासना करने के लिए अपने भावों रूपी चोंच में, आपके प्रति भक्ति भावरूपी पुष्पों को लेकर आपके चरणों में आ गया है। नैवेद्य -आनंद-रसामृत के द्रह हो, नीरस जड़ता का दान नहीं।
तुम मुक्त-क्षुधा के वेदन से, षट्स का नाम-निशान नहीं।। विध-विध व्यंजन के विग्रह से, प्रभु भूख न शांत हुई मेरी।
आनंद-सुधारस-निर्झर तुम, अतएव शरण ली प्रभु तेरी।। चिर-तृप्ति-प्रदायी व्यंजन से, हों दूर क्षुधा के अंजन ये।
क्षुत्पीड़ा कैसे रह लेगी ? जब पाये नाथ निरंजन ये।। हे प्रभो ! आप अतीन्द्रिय आनंद रसरूपी अमृत के सरोवर हैं; इसलिए आप कभी भी रस रहित/नीरस, जड़/अचेतन पदार्थों का दान नहीं देते हैं; अर्थात् आपने यह कभी भी नहीं बताया है कि इन जड़ पदार्थों के आश्रय से भी जीवन आनंदमय हो सकता है। आपने सदा यही वताया है कि अपना ज्ञानानन्द स्वभावी भगवान आत्मा स्वयं अतीन्द्रिय आनंदमय होने से स्वयं में स्थिरता ही आनंदमय दशा है । आप भूख की पीड़ा से पूर्णतया रहित हैं; अतः खट्टे-मीठे आदि छह रसों का आपके जीवन में नामनिशान भी नहीं है/आप यह जड़ भोजन कभी भी नहीं करते हैं। हे भगवन ! अनेक-अनेक व्यंजनों/पक्वान्नों के समूह के आश्रय से मेरी भूख आज तक भी शांत नहीं हो सकी है और आप तो आनंदरूपी अमृत के महान झरने हैं; अतः मैंने अब आपकी शरण ले ली है। सदा संतुष्टि देनेवाले आत्मारूपी व्यंजन को प्राप्त
तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग एक /7