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मनीषियों की दृष्टि में : डॉ. भारिल्ल
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__ आप जैसा कोई नहीं . बीसवीं शताब्दी में आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात करने वाले युगपुरुष श्री कानजी स्वामी जैनधर्म के इतिहास में युगों-युगों तक याद किये जायेंगे। गुजरात के इस महापुरुष को सुयोग्य शिष्य के रूप में डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल जैसा नायाब हीरा मिला, जिसने अपने दूरदर्शी बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण चारों दिशाओं में ज्ञान का ऐसा अलौकिक प्रकाश फैलाया, जिसने देशभर में अध्यात्म की बेमिशाल अलख जगाई।
सुयोग्य शिष्य वही जो अपने गुरु का नाम रोशन करे । डॉ. भारिल्ल आज किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उन्होंने जैनजगत में अपने गुरु पू. कानजी स्वामी की कीर्ति ध्वजा तो लहराई ही है, साथ ही प्रातः स्मरणीय आचार्य कुन्दकुन्द से चली आ रही श्रमण परम्परा के उन्नत ललाट पर कुंकुम का तिलक लगाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है। _प्रचार-प्रसार के युग में वे किसी से पीछे नहीं रहे । यही कारण है कि उनके संपादकत्व में आध्यात्मिक मासिक वीतराग-विज्ञान आज हिन्दी, मराठी व कन्नड़ भाषाओं में लगभग 10 हजार की संख्या में प्रकाशित होकर आत्म पिपासुओं की जिज्ञासा शांत करने का उपक्रम बना हुआ है। ___आपके द्वारा रचित साहित्य जो छोटी-बड़ी कृतियों के 78 पुष्पों के रूप में देश की प्रमुख भाषा हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती, कन्नड़, तमिल तथा तेलगू भाषाओं में छपकर लगभग 42 लाख की संख्या में जन-जन तक पहुँचकर समुचित समादर प्राप्त कर चुकी हैं।
यही नहीं गीताप्रेस गोरखपुर की भाँति कम से कम लागत में विपुल जैन साहित्य उपलब्ध कराने में आपका कोई सानी नहीं है। देश की प्रमुख 8 भाषाओं में आपके निर्देशन में 400 से अधिक छोटी-बड़ी कृतियाँ 68 लाख से अधिक की संख्या में प्रकाशित हुई हैं, जो एक कीर्तिमान है। दातारों के सहयोग से अति अल्प मूल्य में साहित्य विक्रय किया जाता है। अब तक 4 करोड़ 25 लाख से अधिक का साहित्य