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________________ बीसवाँ बोल .२० वें बोल में ऐसा कहते हैं कि वर्तमान निर्मलज्ञानपर्याय ध्रुव ज्ञानस्वभाव को स्पर्श नहीं करती है। शुद्धपर्याय वर्तमान में प्रगट है । 'है' उसकी बात है। शुद्धपर्याय पहले नहीं थी और तत्पश्चात् ध्रुव के लक्ष से प्रगट होगी, उस सापेक्षता की बात ही नहीं लेनी है। शुद्धपर्याय है, है और है, सामान्य ध्रुव भी है; परन्तु शुद्धपर्याय सामान्य के कारण नहीं है; क्योंकि विशेष में सामान्य का अभाव है। १. शुद्ध प्रगट हुई पर्याय, देव-शास्त्र-गुरु का निमित्त मिला - इसकारण प्रगट होती है, ऐसा नहीं है। २. शुद्ध प्रगट हुई पर्याय, पुण्य का शुभभाव है; अत: प्रगट हुई है, ऐसा नहीं है। ३. शुद्ध प्रगट हुई पर्याय, सामान्य ज्ञानगुण शक्तिरूप है, अतः प्रगट हुई है; ऐसा भी नहीं है। ४. पूर्व की अनुभूति के कारण वर्तमान अनुभूति हुई, ऐसा भी नहीं है। शुद्धपर्याय है - वह निरपेक्ष है, अहेतुक है। इसप्रकार निर्णय करने पर निमित्तों और शुभराग पर से लक्ष तो छूटता ही है, उसीप्रकार विशेष और सामान्य के भेद पर से भी लक्ष छूटकर एकाकार वस्तु पर लक्ष जाता है। सब गुण असहाय कहे हैं। एक गुण में अन्य गुण का अभाव है, उसे अतद्भाव कहते हैं। दर्शनगुण ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता है और ज्ञानगुण दर्शन की अपेक्षा नहीं रखता। जिसप्रकार गुण असहाय हैं, स्वतन्त्र-निरपेक्ष हैं; उसीप्रकार ज्ञान की शुद्ध प्रगट पर्याय है, वह ज्ञानगुणसामान्य की अपेक्षा नहीं रखती है। शुद्धपर्याय में त्रिकाली ज्ञानगुण का अभाव है। एक-एक शुद्धपर्याय – सम्यग्ज्ञान की अथवा केवलज्ञान की-असहाय है, निरपेक्ष है। प्रश्न : निरपेक्ष पर्याय कहकर क्या पर्यायदृष्टि करानी है ? उत्तर : नहीं, पर्यायदृष्टि नहीं करानी है। समय-समय की पर्याय सत् अहेतुक है। वह निमित्त की अथवा राग की अपेक्षा नहीं रखती है, किन्तु ज्ञान ।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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