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श्रमण शुद्धोपयोग को साधते हैं, किन्तु महाव्रतादि के राग को नहीं साधते
श्री अर्हन्त को परमेश्वरता प्रगट हुई है। सिद्ध पूर्ण शुद्ध सत्तावाले हैं। सन्तों को पूर्ण शुद्ध सत्ता प्रगट नहीं हुई है, किन्तु उन्होंने शुद्ध उपयोग भूमिका प्रगट की है। उन्हें अट्ठाईस मूलगुण प्राप्त करना नहीं रहता, अपितु अट्ठाईस मूलगुण के पालन का भाव सहज आ जाता है। निश्चय से वे राग का पालन नहीं करते । शुभराग तो बलपूर्वक आ जाता है। पूर्व में कहा है सरागचारित्र क्रम में आ गया है। राग को लायें वह तो मिथ्यादृष्टिपना है। यहाँ तो लोगों को मुनिपने की खबर भी नहीं है । पाँच महाव्रत को मुनि नहीं लाते किन्तु, छटवें गुणस्थान के क्रम में ऐसा राग आ जाता है। मैं इसप्रकार की दया का राग लाऊं - ऐसा मानना वह तो मिथ्यादृष्टिपना है । अज्ञानी उनमें फेरफार करना मानता है, किन्तु इसलिए वस्तुस्वरूप नहीं बदलता ।
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तीर्थंकर परमात्मा को माननेवाले साधक कैसे होते हैं ?
शुद्ध उपयोग को साधते हैं किन्तु, अट्ठाईस मूलगुण पालन को नहीं साधते । शुभराग आ जाता है किन्तु, उसे पुण्य और जहर मानते हैं । मूढ़ जीव शुभराग को धर्म मानते हैं, इसलिए वे संसार में रखड़ते हैं । यह प्रवचनसार दो हज़ार वर्ष पहले लिखा गया था और इसकी टीका एक हजार वर्ष पहले हुई है । देखो ! यहाँ मुनि की बात की है। शुद्धोपयोग चौथे-पाँचवे गुणस्थान में आता है, किन्तु परम शुद्धोपयोग मुनि को आता है । ऐसी भूमिका सामान्यरूप से प्राप्त की है और विशेषरूप से आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के विशेष्यों से भेदवाले हैं - उनको प्रणाम करता हूँ । इसप्रकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु कैसे होते हैं ? उनका भान करके - नमस्कार करते हैं । मेरी पहचान से उनकी पहचान है । जो शुभराग आया है, वह व्यवहार से नमस्कार कहलाता है ।
. दिव्यध्वनिसार भाग १, पृष्ठ २६ [ प्रवचनसार पर पूज्य गुरुदेव के प्रवचन ]
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