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अलिंगग्रहण प्रवचन बारहवाँ बोल न लिंगेभ्य इन्द्रियेभ्यो ग्रहणं विषयाणामुपभोगो यस्येति विषयोपभोक्तृत्वाभावस्य। ___ अर्थ :- जिसे लिंगों के द्वारा अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण अर्थात् विषयों का उपभोग नहीं है, सो अलिंगग्रहण है; इसप्रकार 'आत्मा विषयों का उपभोक्ता नहीं है', ऐसे अर्थ की प्राप्ति होती है। आत्मा विषयों का भोक्ता नहीं हैपरन्तु स्व का भोक्ता है, ऐसा स्वज्ञेय को तू जान।
आत्मा चैतन्य ज्ञाता-दृष्टा स्वभावी है। उसमें शांति और आनन्द का सद्भाव है। इन्द्रियाँ, शरीर, लड्डू, रोटी, दाल, भात, शाक आदि पदार्थ जड़ हैं; उनमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण हैं, वे आत्मा से पर हैं। परपदार्थों का आत्मा में अभाव है और परपदार्थों में आत्मा का अभाव है। अतः आत्मा उन परपदार्थों को नहीं भोगता है। जिस वस्तु का जिसमें अभाव हो, वह उसे किस प्रकार भोग सकता है? आत्मा को इंद्रियाँ ही नहीं हैं; क्योंकि इन्द्रियाँ तो जड़ हैं; अतः उनके द्वारा आत्मा विषयों को भोगता है, यह बात झूठ है।
तथा इन्द्रियों की ओर झुक कर विषय भोगने का भाव होता है, वह आस्रव-बंध तत्त्व है, वह आत्मतत्त्व नहीं है। आत्मा विषयों को नहीं भोगता है, परन्तु हर्ष-शोक को भोगता है। उस हर्ष-शोक का शुद्ध जीवतत्त्व में अभाव है; अतः उसे आत्मा ही नहीं कहते हैं। साधक जीव को स्वभावसन्मुख दृष्टि की मुख्यता है; अतः वह स्व का भोक्ता है।
ग्यारहवें बोल में कहा था कि विकारी परिणाम आत्मा नहीं है; परन्तु श्रद्धाज्ञानरूप निर्विकारी परिणाम सहित आत्मा को ही आत्मा कहते हैं। उसे द्रव्यकर्म का ग्रहण नहीं होता है। जो अस्थिरता रूप राग-द्वेष होता है, उसे गौण करके स्वभावदृष्टि को मुख्य किया है। जो स्वभाव की ओर झुकता है, उसे कर्मबंध