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________________ ग्यारहवाँ बोल ज्ञान-उपयोग का हरण नहीं हो सकता। नववें बोल में कहा था कि स्वसन्मुख रहकर जो कार्य करता है, वह उपयोग है। ज्ञान आत्मा का है, अत: उसे कोई अन्य वस्तु हरण करे, ऐसा नहीं बन सकता है। अन्य वस्तु का आत्मा में अभाव है, अतः ज्ञान का हरण नहीं किया जा सकता है। ऐसे उपयोग लक्षणयुक्त आत्मा है, ऐसा तू जान। ज्ञान उपयोग में मलिनता नहीं है। दसवें बोल में कहा था कि ज्ञान उपयोग में मलिनता नहीं है। जो उपयोग स्वसन्मुख झुकता है और आत्मा में एकाकार होता है, उसे उपयोग कहते हैं। जिसका उपयोग है वह तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अनंत गुणों का पिंड आत्मा है। ज्ञान आत्मा का है तो भी जो ज्ञान, पुण्य-पाप का कार्य करता है, उसे ज्ञान ही नहीं कहते हैं; ऐसा हे शिष्य ! तू जान। ज्ञान उपयोग तेरी ओर झुकता है तो वह तेरी वस्तु कहलाती है; परन्तु पुण्य-पाप की ओर झुकता है तो तेरी वस्तु नहीं कहलाती है। स्व की ओर झुकना धर्म का कार्य है और पर की ओर झुकना अधर्म का कार्य है । जिसप्रकार सूर्य में मलिनता नहीं है, उसीप्रकार यहाँ शुद्धोपयोग में मलिनता नहीं है। ज्ञान उपयोग कर्म का ग्रहण नहीं करता है। ग्यारहवें बोल में कहा था कि उपयोग अपना है, वह पर को किसप्रकार ग्रहण कर सकता है? अथवा पर को ग्रहण करने में निमित्त भी किसप्रकार हो सकता है? हो ही नहीं सकता। पर की ओर झुककर कर्म बंधने में जो निमित्त हो, वह स्व का उपयोग ही नहीं है; परन्तु जो श्रद्धा, ज्ञान, स्थिरता का कार्य करता है, वह उपयोग है। उपयोग लक्षण द्वारा आत्मा पहिचाना जाता है। जो स्वसन्मुखदशा छोड़कर मलिन परिणामरूप अधर्म उत्पन्न करके कर्म को ग्रहण करने में निमित्त हो, उसे आत्मा का उपयोग ही नहीं कहते हैं । जो उपयोग आत्मा में एकाकार होकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी धर्म उत्पन्न करता है; उसे आत्मा का उपयोग कहा है।
SR No.007143
Book TitleAling Grahan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages94
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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