________________
सातवाँ बोल
३५
तब तक भूल होती है। भूल स्वयं में है, इसप्रकार स्वीकार करे तो भूल दूर कर सकता है; परन्तु मुझमें भूल ही नहीं हैं, मैं तो भूल रहित हूँ, इसप्रकार बाह्य क्रियाकाण्ड के अभिमान से माने तो भूल रहित होने का प्रसंग ही नहीं बनता है। अर्थात् उसका संसार दूर नहीं होता है, अतः जीव को स्वयं की भूल कहाँ है? उसे जानकर, उसे स्वीकार करके, उसके दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये ।
यहाँ उपयोग का लक्षण जानना - देखना है और वह लक्षण लक्ष्य का अर्थात् आत्मा का ज्ञान कराता है, ऐसा कहा है।
प्रश्न : आत्मा का उपयोग अनादि से पर की ओर है; परन्तु वह सुधरेगा कब ? शुभराग के अवलंबन अथवा देव-शास्त्र-गुरु के अवलंबन से सुधरेगा अथवा नहीं ?
उत्तर : उपयोग की पर्याय अकारणीय है। शुभराग के अवलंबन से अथवा देव - शास्त्र - गुरु के अवलंबन से उपयोग सुधरेगा, ऐसा मानना यह भ्रम है। उपयोग तो मात्र आत्मा का अवलंबन लेता है। जिसप्रकार आत्मद्रव्य अकारणीय है, उसका गुण अकारणीय है, उन्हें कोई कारण नहीं है, उसीप्रकार पर्याय भी अकारणीय है । उपयोग वह ज्ञानगुण की पर्याय है, उसका कोई कारण नहीं है। उपयोग की पर्याय देव-शास्त्र-गुरु अथवा शुभराग का कारण होने पर वह सुधर जाय, ऐसा कभी नहीं बनता है । उपयोगरूप पर्याय भी अकारणीय है, अतः अपने शुद्ध आत्मा का अवलंबन लेने से ही उपयोग सुधरता है।
ज्ञान ज्ञेयों से स्वतंत्र है ।
आत्मा को परज्ञेयों का अवलंबन तो है ही नहीं; परन्तु उसकी ज्ञानपर्यायउपयोग है, उसे भी ज्ञेयों का अवलंबन नहीं है। उपयोग का जानने-देखने का स्वभाव है, वह ज्ञेयों के कारण नहीं जानता है, उपयोग का ऐसा स्वरूप है - इसप्रकार इस ज्ञेय को तू जान उपयोग अकारणीय है, ऐसा जान उपयोग में परज्ञेयों का अभाव है तो उनका अवलंबन किसप्रकार हो ? होता ही नहीं; परन्तु व्यवहार का कथन होता है, वहाँ जीव अज्ञान के कारण भूल कर बैठते हैं ।