________________
26
चैतन्य की चहल-पहल किसी को अपना गुरु स्वीकार कर भी लेते तो भी उन्हें तत्त्व की उपलब्धि सम्भव नहीं थी; उस समय यह तत्त्व प्राय: अभावग्रस्त था। यहाँ तक कि जीवन के सहज क्रम में जो दीक्षा-गुरु उन्हें मिले थे, तत्त्व की शोध एवं उपलब्धि के लिए उनका मोह भी उन्हें छोड़ना पड़ा।
सौराष्ट्र के उमराला ग्राम में जन्मे उजम्बा एवं मोती के ये लाल बाल्य से ही विरक्त चित्त थे और एक मात्र ज्ञान एवं वैराग्य के प्रकरण ही उन्हें पसन्द थे। अपनी उदात्त लोकोत्तर आकांक्षाओं के समक्ष उन्हें कामिनी का माधुर्य परास्त नहीं कर सका; फलस्वरूप किसी भी मूल्य पर वे उसे जीवन में स्वीकार करने को सहमत नहीं हुए। अन्तर में भोगों से विरक्ति बढ़ती ही गई और अन्त में २४ वर्ष की भरी जवानी में वे स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये। दीक्षा के नियमानुसार घर-बार, कुटुम्ब-परिवार, धन-सम्पत्ति सब छूट ही गये
और दीक्षा के आचार का भी दृढ़ता से पालन होने लगा, किन्तु शान्ति की हूक शान्त नहीं हुई; शोध की प्रेरणा प्रशान्त नहीं हुई और अन्तर्द्वन्द्व चलता ही रहा। अत: अधिक समय तक वह प्रतिबन्ध सह्य न हो सका और एक दिन (वि. स.१९९१) मस्त मतंग की तरह उसे भी छोड़कर चल दिये एवं तत्त्व की मस्ती में घूमते श्री कानजी स्वामी का स्वर्णपुरी (सोनगढ़) सहज ही विश्राम-स्थल बन गया।
श्री कानजीस्वामी के जीवन का यह स्थल सर्वाधिक मार्मिक, स्तुत्यं, लोक-मांगल्यविधायक एवं वरेण्य है, जहाँ उन्होंने जीवन के सबसे भयंकर शत्रु मताग्रह को खुली चुनौती दी और अन्त में विजयी हुए। जीवन में गृह-कुटुम्ब, कंचन-कामिनी, पद एवं प्रतिष्ठा – सभी कुछ तो छूट जाते हैं; किन्तु महान् से महान् ऋषि, मुनि एवं मनीषियों