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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 89 उपशम होता है और फिर क्षायोपशमिकपूर्वक क्षायिकसम्यक्त्व होता है। धर्म प्राप्त करनेवाले जीव को पहले उपशमसम्यक्त्व ही होता है। वह चारों गति में हो सकता है। सातवें नरक में भी असंख्यात जीव, वहाँ जाने के बाद उपशमसम्यक्त्व नया प्रगट करनेवाले हैं। चार गति में कोई भी अनादि मिथ्यादृष्टि जीव, सर्वप्रथम निर्विकल्प आत्मानुभव करता है, वह उपशमसम्यक्त्वसहित होता है। चैतन्य को पकड़ कर उसने अकेला पुरुषार्थ किया और मोह को दबा दिया। उसे दर्शनमोहकर्म वर्तमान प्रगट नहीं होता तथा उसका सर्वथा क्षय भी नहीं हुआ है। मिथ्यात्व की अनुभूति, वह उपशमसम्यक्त्व है। - यह उपशम आदि तीन भाव, जीव की निर्मलपर्याय हैं। क्षायिक आदि भाव, जीव को नहीं हैं - ऐसा कहा तो उसका यह अर्थ, वे पर्यायें, जीव में नहीं हैं -- ऐसा नहीं है परन्तु उसका अर्थ तो यह है कि जीव में द्रव्यरूप से वे भाव नहीं हैं परन्तु पर्यायरूप से हैं। वस्तु में द्रव्य, वह पर्याय नहीं है; पर्याय, वह द्रव्य नहीं है। पाँच भावों में से चार भाव तो पर्यायरूप हैं और एक द्रव्यरूप है। ____ पाँच भावों में से औदयिकभाव, मोक्ष का कारण नहीं है; औपशमिकादि तीन भाव, मोक्ष का कारण हैं और पाँचवाँ भाव, पारिणामिकभाव है, वह द्रव्यरूप है, वह बन्ध-मोक्ष का कारण नहीं है। चार भाव, क्रियारूप हैं, अर्थात् उत्पाद-व्ययरूप हैं और पाँचवाँ भाव, निष्क्रिय है, अर्थात् एकरूप ध्रुव है। द्रव्य और पर्याय दोनों होकर वस्तु है। द्रव्य, वह निश्चय और पर्याय, वह व्यवहार है। दोनों होकर प्रमाणवस्तु सत्; उसमें द्रव्य, वह द्रव्यार्थिकनय का
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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