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________________ • ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा विषय है और पर्याय, वह पर्यायार्थिकनय का विषय है परन्तु वे दोनों पर से तो भिन्न ही हैं - ऐसी सत् वस्तु के भावों का यह वर्णन है । 90 अरे बापू! वाद-विवाद छोड़कर ऐसी आत्मवस्तु के विचार में और मन्थन में रहे तो कोई अपूर्व चीज हाथ में आयेगी। भाई ! जीवन के प्रत्येक समय की महान कीमत है । अरे! मनुष्यभव का यह अवसर ऐसा का ऐसा चला जाए तो उसकी क्या कीमत ! इस मनुष्यभव के एक-एक क्षण में भव के अभाव का कार्य करने योग्य है। कहीं भव बढ़ाने के लिए यह मनुष्य - अवतार नहीं है परन्तु भव का अभाव करने के लिए यह मनुष्य - अवतार है । यदि मनुष्यभव प्राप्त करके यह कार्य नहीं किया तो दूसरे भवों में और इस भव में क्या अन्तर है ? अनन्त भव चले गये, इसी प्रकार यदि यह भव भी चला जाएगा तो आत्मा का हित कब करेगा ? इसलिए सावधान होकर अपनी आत्मा का स्वरूप समझ । आत्मा, पर से तो अत्यन्त भिन्न है; इसलिए पर के साथ कोलाहल की बात तो दूर रही, यहाँ तो कहते हैं कि अपने में एक पर्याय का भेद करके उसके लक्ष्य में अटके तो भी सम्पूर्ण वस्तु लक्ष्य में नहीं आती है। भाई ! तेरी वस्तु सत् है, वह तेरे द्रव्य--पर्यायरूप है; पर के साथ तुझे कोई सम्बन्ध नहीं है । तुझमें जो द्रव्य और पर्याय, सत् है, उसकी यह बात है; उसे तू विचार में तो ले - तेरे अपने घर की वस्तु को तू लक्ष्य में तो ले। जीव के मिथ्यात्व, रागादिभाव - उदयभाव या केवलज्ञानादिक - क्षायिकभाव, ये सब भाव, पर्याय कोटि में आते हैं और ध्रुवरूप शुद्धपरमभाव, वह द्रव्य कोटि में आता है। वज्र जैसा वह सहजभाव,
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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