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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
पारिणामिकभाव - आत्मा का त्रिकाली सहज एकरूप स्वभाव, उसे परमभाव कहा है; अन्य चार भाव क्षणिक हैं, इसलिए उन्हें परमभाव नहीं कहा है। पारिणामिकरूप परमस्वभाव प्रत्येक जीव में सदा विद्यमान है।
अरे! यह तो परम सत्य है; परम अमृत ऐसे आत्मस्वरूप का वर्णन है। यह तेरे भावों का वर्णन है, तेरे भावों में किस प्रकार से आवरण है और किस प्रकार से विकास है? – यह उसकी बात है। ____ पाँच भावों में उपशमभाव को सबसे पहले कहा है क्योंकि मोक्षमार्ग की शुरुआत ही उपशमभाव से होती है। अन्दर रागरहित शान्त अकषायस्वरूप के वेदन से आत्मा को उदय से भिन्न जाना, तब उपशमभाव प्रगट हुआ और तब उदयभावों को ज्यों का त्यों जाना। उपशमभाव के बिना उदय को भी जानेगा कौन? भेदज्ञान के बिना तो उदय को जानते ही, उदयभाव को ही अपना स्वभाव मान लेता था। अब, उससे भिन्नता जानने पर, मोक्षमार्ग प्रारम्भ हुआ है। उपशमभावसहित हुआ सम्यग्ज्ञान ही उदय को यथार्थ जानता है। तत्त्वार्थसूत्र में भी पाँच भावों के कथन में पहले उपशमभाव लिया है।
जैसे, सर्प को पकड़ने के लिए पहले उसे ठारे, अर्थात् उस पर पानी छिड़ककर उसे शान्त करे, अथवा जैसे मलिन पानी में औषधि डालकर उसे स्वच्छ करे, कीचड़ नीचे बैठ जाये; उसी प्रकार अनादि से कषायों में वर्तता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव, प्रथम तो उन कषायों को ठारता है। कषायों को तथा मिथ्यात्व को ठारकर, अर्थात् उपशम करके औपशमिकसम्यग्दर्शन प्रगट करता है। मिथ्यात्व में से सीधा क्षायिकसम्यक्त्व नहीं होता है, सबसे पहले