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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
'मैं ध्यान करनेवाला और यह मेरा ध्येय' - ऐसा ध्यान-ध्येय का भेद नहीं रहता है। ध्येय और ध्याता - ऐसे दो खण्ड पर लक्ष्य जाने से विकल्प उत्पन्न होता है और वहाँ सच्चा ध्यान नहीं होता। ध्यान में एक अखण्ड तत्त्वरूप से आत्मा प्रकाशित होता है। अहो! ऐसे आत्मा को पहचानना और ध्याना, वह महान प्रयोजनरूप है।
चैतन्यवस्तु का परमस्वभाव ध्यानगम्य है, विकल्पगम्य नहीं। भाई! ऐसा तेरा स्वरूप तुझे समझनेयोग्य है, सरल है; दूसरा सब लक्ष्य छोड़कर तेरे स्वभाव की महिमा लाकर, इस तेरी वस्तु को समझ! तेरी साधकदशा या सिद्धदशा, वह तेरी पर्याय में है। पर्याय में वह नहीं है - ऐसा नहीं है; पर्याय में तो है परन्तु अभेद के ध्यान में वह पर्याय पृथक् नहीं दिखती है।
ध्रुवरूप ध्येय में एकाग्र हो जाए, उसका नाम ध्यान। उस ध्यान में आत्मा कहीं सर्वथा शून्य हो जाए - ऐसा नहीं है अथवा पर्याय से सर्वथा भिन्न पड़ जाए - ऐसा नहीं है। यदि पर्याय हो ही नहीं तो ध्रुव को ध्याया किसने? पर्याय है अवश्य, परन्तु अभेद ध्यान में उसका भेद नहीं दिखायी देता । वेदान्त इत्यादि तो पर्याय का अस्तित्व ही नहीं मानता; इसलिए उन्हें तो ध्येय, ध्यान, मोक्षमार्ग, मोक्ष -- ऐसा कुछ है ही नहीं। उसमें और इस बात में जरा भी समानता नहीं है। दोनों में पूर्व-पश्चिम जितना अन्तर है। यह ध्रुव की बात वेदान्तवाले सुनें तो प्रसन्न हो जाएँ'- ऐसा कोई कहता है तो वह इस जैन सिद्धान्त के रहस्य को जरा भी नहीं समझा है। वह तो गृहीतमिथ्यात्व में खड़ा है।
भाई! यह तो जैन परमेश्वर द्वारा कथित अपूर्व बात है, इसमें पर्याय के स्वीकारपूर्वक द्रव्यस्वभाव की बात है। द्रव्य--पर्यायरूप