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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 85 अनेकान्तस्वभाववाली वस्तु है, उसे द्रव्यदृष्टि से देखते समय पर्याय दिखलायी नहीं देती, अर्थात् गौण हो जाती है परन्तु वस्तु में पर्याय है ही नहीं - ऐसा नहीं है। पर्याय तो वस्तु के अस्तित्व का निर्णय करती है। वस्तु ऐसी है - ऐसे निर्णय का काम, पर्याय नहीं हो तो किसमें होगा? ध्रुव का निर्णय कहीं ध्रुव स्वयं नहीं करता; ध्रुव का ध्यान, ध्रुव के द्वारा नहीं होता; पर्याय उसमें एकाग्र होकर उसे ध्याती है। वहाँ यह ध्याता और यह ध्येय' - ऐसा भेद नहीं रहता; अभेद हो जाता है, इसका नाम मोक्षमार्ग है। आत्मा की पर्याय में बन्ध-मोक्ष के परिणाम होते हैं, उन्हें भी जो नहीं समझता, उसे तो कुछ सूझे - ऐसा नहीं है, अर्थात् बन्ध के अभाव का और मोक्ष के साधने का कुछ भी उसे नहीं रहता। वेदान्तमती को तो पर्याय का ही कहाँ निर्णय है? मेरी पर्याय मुझमें होती है, इतना भी निर्णय जिसे नहीं हो, उसे द्रव्यस्वभाव का निर्णय सच्चा नहीं होता। यहाँ तो उत्कृष्ट बात है। मोक्ष, किस भाव से सधता है और उसमें ध्येयरूप वस्तु कैसी है? वह यहाँ बतायेंगे। पर्याय भले ही बदले, परन्तु वह ध्रुव के आश्रय से ही पलटती होने से निर्मल-निर्मल हुआ करती है। यदि रागादि का आश्रय करके बदले, तब तो वह अशुद्ध होगी। निर्णय, अनुभव या ध्यान, वह पर्याय है। मोक्ष को साधने के लिए क्या करना? उत्पाद . व्ययरूप पर्यायभेदों का ध्यान छोड़कर, ध्रुव अभेद परमस्वभाव को ध्याना -- मोक्ष साधने की यह विधि है। सम्पूर्ण वस्तु एक समय की पर्याय जितनी ही नहीं है, तथापि स्वसन्मुख पर्याय में आत्मा स्वयं गुप्त रह सके - ऐसा नहीं है। गुप्त नहीं रह सके, अर्थात् क्या? यही कि स्वसंवेदन ज्ञान में प्रगट
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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