SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 83 ऐसा मार्ग वीतराग का कहा श्री भगवान..... वस्तु स्वभाव का निर्णय पर्याय करती है परन्तु वह पर्याय, ध्रुव का अवलम्बन करनेवाली है । अभेदस्वभाव के अवलम्बन के जोर से धर्मी की पर्याय, निर्मलरूप से परिवर्तित होती हैं और अज्ञानी की पर्याय, राग के अवलम्बन के द्वारा अशुद्धरूप से पलटा खाती है। पर्याय तो दोनों की पलटती है परन्तु स्वभाव का अवलम्बन करने से वह शुद्ध होती है और परभाव का अवलम्बन करने से अशुद्ध होती है । पर के कारण तो किसी की पर्याय नहीं होती है। वस्तु, द्रव्यरूप से त्रिकाल, उसके सहजस्वभावरूप गुण त्रिकाल और पर्यायें प्रति समय बदलनेवाली हैं । वस्तु में प्रत्येक समय पर्याय होती अवश्य है: एक की एक पर्याय कायम नहीं टिकती; नयी-नयी हुआ करती है। वस्तु परिणामस्वभाववाली है, वह सर्वथ कूटस्थ नहीं है; पर्यायरहित अकेला कूटस्थ - ध्रुव नहीं हो सकता । वस्तु में ध्रुवत्व टिक कर नयी-नयी पर्यायरूप परिणमन होता है। पर्याय बदलती है; द्रव्य नहीं बदलता - ऐसा वस्तुस्वभाव है । सर्वज्ञदेव ने ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशित किया है। भाई ! जैसा तू है, वैसा लक्ष्य में तो ले ! अहो ! चैतन्यवस्तु का परम-स्वभाव कोई अद्भुत और आश्चर्यकारी है। धर्मी जीव, अखण्ड ज्ञानानन्दस्वरूप आत्मा को जानकर, उसी को भाता है। भाता है, अर्थात् ध्याता है । वह भावना करता है पर्याय द्वारा, परन्तु पर्याय के खण्ड पर, भेद पर लक्ष्य रखकर भावना नहीं करता । अभेद को ही लक्ष्य में लेकर भाता है कि अखण्ड एक शुद्ध परमभावरूप निज परमात्मद्रव्य मैं हूँ । एक वस्तु में खण्ड क्या? अखण्ड में पर्याय को एकाग्र करके ध्याता है, वहाँ
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy